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Thursday 9 February 2017

गेंदा की खेती

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बाजार में अब वर्ष भर गेंदा के फूलों की डिमांड रहती है. त्योहारों पर प्रतिष्ठानों या घरों की सजावट करनी हो, या फिर वैवाहिक कार्यक्रम हों, बिना फूलों के पूरे नहीं हो सकते, वहीं मंदिरों पर पूजन के लिए भी फूलों की जरूरत रहती है. इसके अतिरिक्त अन्य कार्यक्रमों में भी फूलों की मांग बनी रहती है. ऐसे में गेंदा की खेती करना काफी फायदे का सौदा है.
गेंदा के कुछ प्रजातियों जैसे-हजारा और पांवर प्रजाति की फसल वर्ष भर की जा सकती है. एक फसल के खत्म होते ही दूसरी फसल के लिए पौध तैयार कर ली जाती है. इस खेती में जहां लागत काफी कम होती हैं, वहीं आमदनी काफी अधिक होती है. गेंदा की फसल ढाई से तीन माह में तैयार हो जाती है. इसकी फसल दो महीने में प्राप्त की जा सकती है. यदि अपना निजी खेत हैं तो एक बीघा में लागत एक हजार से डेढ़ हजार रुपये की लगती है, वहीं सिंचाई की भी अधिक जरूरत नहीं होती. मात्र दो से तीन सिंचाई करने से ही खेती लहलहाने लगती है, जबकि पैदावार ढाई से तीन कुंटल तक प्रति बीघा तक हो जाती है. गेंदा फूल बाजार में 70 से 80 रुपये प्रति किलो तक बिक जाता है. त्योहारों और वैवाहिक कार्यक्रमों में जब इसकी मांग बढ़ जाती है तो दाम 100 रुपये प्रति किलो तक के हिसाब से मिल जाते हैं. गेंदा की खेती करने वाले किसान बताते हैं कि गेंदा की खेती में लागत कम हैं. त्योहारों में अच्छे दाम मिल जाते हैं, और इसकी डिमांड पूरे वर्ष ही विभिन्न कार्यक्रमों के चलते बनी रहती है.
रायपुर के छत्तीसगढ़ के बालोद जिला मुख्यालय से तीन किलोमीटर दूर गंगा मैया मंदिर झलमला के बगल में एक किसान के खेत में गेंदे के फूल लहलहा रहे हैं. यह क्षेत्र में आकर्षण का केंद्र बना हुआ है. किसान युवराज पटेल, अशोक पटेल के अनुसार नर्सरी से गेंदा फूल के पौधे मिले हैं. इसे लगाने के बाद उनकी तकदीर बदलती जा रही है. फूलों से उन्हें मुनाफा हो रहा है. वह फूल व्यवासियों को नियमित गेंदा फूल बेच रहे हैं. इससे उन्हें हर महीने 10 हजार रुपये से अधिक का शुद्ध मुनाफा हो रहा है.
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जलवायु और भूमि

उत्तर भारत में मैदानी क्षेत्रो में शरद ऋतू में उगाया जाता है तथा उत्तर भारत के पहाड़ी क्षेत्रो में गर्मियों में इसकी खेती की जाती है. गेंदा की खेती बलुई दोमट भूमि उचित जल निकास वाली उत्तम मानी जाती है . जिस भूमि का पी.एच. मान 7.0 से 7.5 के बीच होता है वह भूमि खेती के लिए अच्छी मानी जाती है.

उन्नतशील प्रजातियां

गेंदा की चार प्रकार की किस्मे पायी जाती है प्रथम अफ्रीकन गेंदा जैसे कि क्लाइमेक्स, कोलेरेट, क्राउन आफ गोल्ड, क्यूपीट येलो, फर्स्ट लेडी, फुल्की फ्रू फर्स्ट, जॉइंट सनसेट, इंडियन चीफ ग्लाइटर्स, जुबली, मन इन द मून, मैमोथ मम, रिवर साइड ब्यूटी, येलो सुप्रीम, स्पन गोल्ड आदि है. ये सभी व्यापारिक स्तर पर कटे फूलो के लिए उगाई जाती है. दूसरे प्रकार की मैक्सन गेंदा जैसे कि टेगेट्स ल्यूसीडा, टेगेट्स लेमोनी, टेगेट्स मैन्यूटा आदि है ये सभी प्रमुख प्रजातियां है. तीसरे प्रकार की फ्रेंच गेंदा जैसे कि बोलेरो  गोल्डी, गोल्डी स्ट्रिप्ट, गोल्डन ऑरेंज, गोल्डन जेम, रेड कोट, डेनटी मैरिएटा, रेड हेड, गोल्डन बाल आदि है. इन प्रजातियों का पौधा फ़ैलाने वाला झड़ी नुमा होता है. पौधे छोटे होते है देखने में अच्छे लगते है. चौथे संकर किस्म की प्रजातिया जैसे की नगेटरेटा, सौफरेड, पूसा नारंगी गेंदा, पूसा बसन्ती गेंदा आदि.
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खेत की तैयारी

गेंदे के बीज को पहले पौधशाला में बोया जाता है. पौधशाला में पर्याप्त गोबर की खाद डालकर भलीभांति जुताई करके तैयार की जाती है. मिट्टी को भुरभुरा बनाकर रेत भी डालते है तथा तैयार खेत या पौधशाला में क्यारियां बना लेते है. क्यारियां 15 सेंटीमीटर ऊंची एक मीटर चौड़ी तथा 5 से 6 मीटर लम्बी बना लेना चाहिए. इन तैयार क्यारियो में बीज बोकर सड़ी गोबर की खाद को छानकर बीज को क्यारियो में ऊपर से ढक देना चाहिए. तथा जब तक बीज जमाना शुरू न हो तब तक हजारे से सिंचाई करनी चाहिए इस तरह से पौधशाला में पौध तैयार करते है.

बीज बुआई

गेंदे की बीज की मात्रा किस्मों के आधार पर लगती है. जैसे कि संकर किस्मों का बीज 700 से 800 ग्राम प्रति हेक्टेयर तथा सामान्य किस्मों का बीज 1.25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है. भारत वर्ष में इसकी बुवाई जलवायु की भिन्नता के अनुसार अलग-अलग समय पर होती है. उत्तर भारत में दो समय पर बीज बोया जाता है जैसे कि पहली बार मार्च से जून तक तथा दूसरी बार अगस्त से सितम्बर तक बुवाई की जाती है.

पौध रोपाई

गेंदा के पौधों की रोपाई समतल क्यारियो में की जाती है रोपाई की दूरी उगाई जाने वाली किस्मों पर निर्भर करती है. अफ्रीकन गेंदे के पौधों की रोपाई में 60 सेंटीमीटर लाइन से लाइन  तथा 45 सेंटीमीटर पौधे से पौधे की दूरी रखते है तथा अन्य किस्मों की रोपाई में 40 सेंटीमीटर पौधे से पौधे तथा लाइन से लाइन की दूरी रखते है.
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खाद एवं उर्वरक

250 से 300 कुंतल सड़ी गोबर की खाद खेत की तैयारी करते समय प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देना  चाहिए इसके साथ ही अच्छी फसल के लिए 120 किलोग्राम नत्रजन, 80 किलोग्राम फास्फोरस तथा 80 किलोग्राम पोटाश तत्व के रूप में प्रति हेक्टेयर देना चाहिए. फास्फोरस एवं  पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा खेत की तैयारी करते समय अच्छी तरह जुताई करके मिला देना चाहिए. नत्रजन की आधी मात्रा दो बार में बराबर मात्रा में देना चाहिए. पहली बार रोपाई के एक माह बाद तथा शेष रोपाई के दो माह बाद दूसरी बार देना चाहिए.

निराई – गुड़ाई

गेंदा के खेत को खरपतवारो से साफ़ सुथरा रखना चाहिए तथा निराई-गुड़ाई करते समय गेंदा के पौधों पर 10 से 12 सेंटीमीटर ऊंची मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए जिससे कि पौधे फूल आने पर गिर न सके.
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रोग और नियंत्रण

गेंदा में अर्ध पतन, खर्रा रोग, विषाणु रोग तथा मृदु गलन रोग लगते है. अर्ध पतन हेतु नियंत्रण के लिए रैडोमिल 2.5 ग्राम या कार्बेन्डाजिम  2.5 ग्राम या केप्टान 3 ग्राम या थीरम 3 ग्राम से बीज को उपचारित करके बुवाई करनी चाहिए. खर्रा रोग के नियंत्रण के लिए किसी भी फफूंदी नाशक को 800 से 1000 लीटर पानी में मिलाकर 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए. विषाणु एवं गलन रोग के नियंत्रण हेतु मिथायल ओ डिमेटान 2 मिलीलीटर या डाई मिथोएट  एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए.

कीट नियंत्रण

गेंदा में कलिका भेदक, थ्रिप्स एवं पर्ण फुदका कीट लगते है इनके नियंत्रण हेतु फास्फोमिडान या डाइमेथोएट 0.05 प्रतिशत के घोल का छिड़काव 10 से 15 दिन के अंतराल पर दो-तीन छिड़काव करना चाहिए अथवा क़यूनालफॉस 0.07 प्रतिशत का छिड़काव आवश्यकतानुसार करना चाहिए.

तुड़ाई और कटाई

जब हमारे खेत में गेंदा की फसल तैयार हो जाती है तो फूलो को हमेशा प्रातः काल ही काटना चाहिए तथा तेज धूप न पड़े फूलो को तेज चाकू से तिरछा काटना चाहिए फूलो को साफ़ पात्र या बर्तन में रखना चाहिए. फूलो की कटाई करने के बाद छायादार स्थान पर फैलाकर रखना चाहिए. पूरे खिले हुए फूलो की ही कटाई करानी चाहिए. कटे फूलो को अधिक समय तक रखने हेतु 8 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान पर तथा 80 प्रतिशत आद्रता पर तजा रखने हेतु रखना चाहिए. कट फ्लावर के रूप में इस्तेमाल करने वाले फूलो के पात्र में एक चम्मच चीनी मिला देने से अधिक समय तक रख सकते है.
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पैदावार

गेंदे की उपज भूमि की उर्वरा शक्ति तथा फसल की देखभाल पर निर्भर करती है इसके साथ ही सभी तकनीकिया अपनाते हुए आमतौर पर उपज के रूप में 125 से 150 कुंतल प्रति हेक्टेयर फूल प्राप्त होते है कुछ उन्नतशील किस्मों से पुष्प उत्पादन 350 कुंतल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होते है यह उपज पूरी फसल समाप्त होने तक प्राप्त होती है.
https://krishisalah.wordpress.com के सौजन्य से 

Tuesday 24 January 2017

मछली संसाधन की उन्नत विधि

  1. संसाधन की वर्तमान विधि से हानि
  2. विधि
  3. उपयोग किये गये संरक्षक (प्रिज़र्वेटिव्स)
  4. इस विधि के लाभ

मछली संसाधन की उन्नत विधि
संसाधन (क्योरिंग) हमारे देश में प्रचलित एक पारंपरिक, सस्ती और पुरानी ऐसी विधि है जिसका प्रयोग मछली के संरक्षण केलिए किया जाता है।

संसाधन की वर्तमान विधि से हानि

  • सामान्यतया क्योर्ड उत्पादों के लिए निम्न गुणवत्ता वाली मछलियों का उपयोग किया जाता है।
  • उपयोग में लाये जाने वाले नमक की गुणवत्ता कम होती है। इसमें ढेर सारी गंदगियाँ और बालु पाये जाते हैं। स्वास्थ्यकर स्थितियों के बारे में ध्यान दिये बिना इस प्रकार के नमक का प्रयोग कर प्राप्त क्योर्ड फ़िश प्राकृतिक रूप से निम्न गुणवत्ता वाले होते हैं।
  • ऐसे मछली संसाधन यार्ड में अच्छे पानी का प्रयोग नहीं किया जाता है।
  • प्राप्त सभी मछलियों को सीमेंट से बने एक बड़े टैंक में जमा कर दिया जाता है जिसमें नमक के अलग-अलग परत होते हैं। परिसर को साफ रखने के महत्व को महसूस नहीं किया जाता है। इस प्रकार के टैंक के नमक में दो-तीन दिनों तक मछलियों को रखने के बाद उसे निकालकर समुद्र किनारे खुले आकाश में धूप में सुखाया जाता है। इस प्रक्रिया में इनके ऊपर ढेर सारे बालू जमा हो जाते हैं और फिर इन्हें बिना किसी पैकिंग के ज़मीन के ऊपर एकत्रित किया जाता है।
इस तरह क्योर्ड की गई मछली सामान्यतया लाल हैलोफिलिक बैक्टिरिया से संदूषित हो जाती हैं और इन उत्पादों को दो या तीन सप्ताह से अधिक के लिए संरक्षित नहीं किया जा सकता है।
कालीकट में स्थित केन्द्रीय मत्स्य प्रौद्योगिकी संस्थान व अनुसंधान केन्द्र ने अच्छी गुणवत्ता वाली क्योर्ड मछली तैयार करने के लिए मानक विधि स्थापित की है। इसके बारे में संक्षेप में निम्न जानकारी प्रस्तुत है:

विधि

  • प्राप्त की गई ताजी मछलियों को तुरंत स्वच्छ समुद्री पानी में धोया जाता है ताकि स्लाइम, चिपकी गंदगी आदि को निकाला जा सके।
  • इसे फिर मछली सफाई यार्ड में ले जाया जाता है जहाँ स्वास्थ्यपरक स्थिति और सामान की गुणवत्ता बनाये रखने के लिए बहुत अधिक सावधानी बरती जाती है। पारंपरिक विधि के विपरीत, आगे की सभी प्रक्रियाएँ एक साफ टेबल के ऊपर की जाती है ताकि बालू, गंदगी आदि से संदूषित होने से बचा जा सके।
  • सफाई की इन सभी प्रक्रियाओं के लिए 100 पीपीएम तक का क्लोरिनेटेड पानी के उपयोग के लिए सलाह दी जाती है।
  • प्रसंस्करण टेबल पर अंतरियाँ आदि हटायी जाती है और मछलियों की ड्रेसिंग की जाती है। सार्डाइन जैसी मछलियों के मामलों में स्केल भी हटा देने की सलाह दी जाती है जिससे कि अंतिम क्योर्ड उत्पाद आकर्षक दिखे। अंतरियाँ तुरंत टेबल के नीचे रखी कचरे की टोकरी में डाल दी जानी चाहिए। छोटी मछलियों के मामलों में व्यापारिक दृष्टिकोण से इस प्रकार किया जाना संभव नहीं होता है। ऐसी स्थिति में मछली की सफाई के बाद इसे सीधे साल्टेड (नमक से संपर्क) किया जाता है।
  • इस प्रकार सफाई (ड्रेसिंग) की गई मछली को अच्छे पानी में धोया जाता है और फिर पानी को सूखने दिया जाता है। इसे छिद्रदार प्लास्टिक के बर्तन में आसानी से किया जा सकता है।
  • पानी पूरी तरह सूख जाने के बाद मछली को साल्टिंग टेबल पर ले जाया जाता है। यहाँ मछली पर एक-समान रूप से हाथ द्वारा अच्छी गुणवत्ता वाली नमक लगायी जाती है। ध्यान रखें कि नमक लगाने वाले लोगों का हाथ ठीक से साफ हो। सामान्य रूप से नमक और मछली में 1:4 का अनुपात होना चाहिए (नमक के एक भाग के साथ मछली के चार भाग)।
  • नमक लगाने (साल्टिंग) के बाद मछली अत्यंत ही स्वच्छ सीमेंट के टैंक में एक के ऊपर एक जमा की जाती है और इन टैंकों में इसे कम से कम 24 घंटों के लिए रखा जाता है। इसके बाद मछली बाहर निकाली जाती है और इसके सतह पर जमे अत्यधिक ठोस नमक निकालने के लिए स्वच्छ पानी में उसे साफ किया जाता है।
  • इस प्रकार से साल्टेड मछली सुखाने वाले स्वच्छ प्लेटफॉर्म पर सुखाई जाती है। ये स्वच्छ सीमेन्ट का प्लेटफॉर्म या बांस की जाली भी हो सकती है। यदि ये उपलब्ध नहीं हों तो बाँस की साफ चटाई पर भी इसे सुखाया जा सकता है। लेकिन इस स्थिति में मछली को 25% या उससे नीचे स्तर तक की नमी तक ही सुखायी जानी चाहिए।
प्रत्येक अवस्था में स्वास्थ्य के उचित मानक बनाये रखने के लिए पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए।

उपयोग किये गये संरक्षक (प्रिज़र्वेटिव्स)

  • इस तरह से सुखाई गई मछली के ऊपर कैल्सियम प्रोपायोनेट और नमक के बारीक पाउडर के मिश्रण का छिड़काव किया जाता है।
  • इस मिश्रण को ठीक से बनाने के लिए कैल्सियम प्रोपायोनेट के तीन भाग के साथ नमक के बारीक पाउडर का 27 भाग मिलाया जाता है।
  • यह ध्यान दें कि मिश्रण का प्रयोग मछली के सभी हिस्सों में एक-समान रूप से किया जाता है।
  • इसके बाद रिटेल मार्केटिंग (खुदरा व्यापार) के लिए इसे उपयुक्त वज़न के अनुसार सील किये गये पोलिथिन बैग में पैक किया जा सकता है। थोक बिक्री के लिए इसे पोलिथिन लाइन्ड गन्नी बैगों में पैक किया जा सकता है। इस प्रकार के पैकिंग से संरक्षण के दौरान अत्यधिक निर्जलीकरण होने से बचा जाता है। साथ में, हानिकारक जीवाणु से भी सुरक्षा मिलती है।
  • सामान्य रूप में 10 किलोग्राम मछली की डस्टिंग के लिए 1 किलोग्राम मिश्रण की आवश्यकता होती है।
  • कुकिंग (पकाने) से पहले जब अत्यधिक नमक निकालने के लिए मछली पानी में डुबोयी जाती है तो यह संरक्षक भी निकल जाता है।
  • इस प्रकार क्योर्ड मछली को अधिक समय तक संरक्षित रखने के लिए यह बहुत ही सुरक्षित, सरल और प्रभावी विधि है।
इस विधि द्वारा संरक्षित की गई मछली कम से कम आठ महीने के लिए अच्छी स्थिति में रखी जा सकती है।

इस विधि के लाभ

  • यह विधि बहुत ही सरल है और सामान्य व्यक्ति द्वारा आसानी से अपनायी जा सकती है।
  • हानिकारक जीवाणु से संदूषित होने से यह बचाती है और क्योर्ड मछली की संरक्षण जीवन में महत्वपूर्ण वृद्धि होती है।
  • क्योर्ड मछली के रंग, गंध या स्वाद पर कैल्सियम प्रोपायोनेट का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
तुलनात्मक रूप से यह सस्ती विधि है। इस विधि द्वारा मछली संसाधन के बाद मूल्य में आयी वृद्धि और इसके स्वयं के जीवन में हुई प्रगति पर विचार करते हुए इसके उत्पादन लागत में थोड़ी वृद्धि नगण्य है।
स्रोत : केन्द्रीय मत्स्य प्रौद्योगिकी संस्थान, कोचीन, केरल

Monday 23 January 2017

मछली पालकों के लिए महत्वपूर्ण बिंदु

  1. महत्वपूर्ण बिन्दु
  2. मत्स्य पालन-क्या करें और क्या न करें
    1. क्या करें
    2. क्या न करें.
  3. मलेरिया रोग के जैविक नियंत्रण में गम्बुसिया मछली का महत्व


महत्वपूर्ण बिन्दु

1. तालाब को नियमानुसार पट्‌टे पर प्राप्त कर मत्स्यपालन करें नीलामी में न लें यह नियम के विपरीत हैं।
2. इस अाशय का सूचना पट लगायें कि इस तालाब में मछली पालन किया जा रहा है, कृपया इस तालाब में विषैली वस्तु, बर्तन या स्प्रेयर न धोयें।
3. मत्स्य पालन आय का उत्तम साधन है इसलिए इसे समूचित ढंग से व्यापार की तरह करें।
4. मत्स्य बीज, संचयन, मत्स्याखेट आदि मत्स्य अधिकारी की सलाह लेकर करें।
5. बीज डालने के पूर्व तालाब की तैयारी साफ-सफाई से पूर्ण संतुष्ट हो लें।
6. शासकीय या शासन से मान्यता प्राप्त मत्स्य बीज उत्पादन केंद्रों से ही मत्स्य बीज, क्रय कर संचित करें।
7. लीज राशि समय पर पटाकर पक्की रसीद प्राप्त करें तथा मत्स्य बीज क्रय की रसीदें भी रखें।
8. मत्स्य बीज संचयन प्रति हेक्टर संखया के आधार पर करें वनज के आधार पर नहीं।
9. एक ही प्रकार का मत्स्य बीज संचित न करें, मिश्रित मत्स्य बीज संचित करें।
10. किसी ठेकेदार या बिचौलियों के उधार में मिले तब भी मत्स्य बीज न लें अन्यथा उसे उसके निर्धारित दर पर मछली बेचने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।
11. ज्यादा अच्छा हो नर्सरी बनाकर स्पान सवंर्धित करें तथा अंगुलिकायें बनाकर तालाब में संचित करें।
12. कतला, रोहू, मृगल के साथ बिगहेड संचित न करें अन्यथा कतला की बाढ़ प्रभावित होगी।
13. तालाब से जितनी मछली निकाले पुनः उतना मत्स्य बीज संचित करें।
14. मत्स्य बीज का प्रतिमाह एवं बाढ़ को आधार मानकर निरीक्षण करें।
15. केन्द्र शासन द्वारा थाईलैण्ड मागुर एवं बिगहेड पालन प्रतिबंधित है अतः ये मछलियां न पाले।
16. वर्षा ऋतु में ज्यादा मात्रा में मछली निकालें।
17. दो वर्ष पुरानी परिपक्व मछलियां बाजार में विक्रय न करें, उसे मत्स्य बीज उत्पादन हेतु मत्स्य बीज उत्पादन केन्द्र में उपलब्ध करायें।
18. मछली निकलवाने के पूर्व अधिकतम दर में मछली विक्रय सुनिश्चित करें, बेहतर होगा स्वयं मछली बाजार जायें
19. तालाब में15-20 जगह पेड़ों की बड़ी घनी डालियां डाल दे ताकि गिलनेट से मछली न चुराई जा सके।
20. तालाब के आय-व्यय का हिसाब रखें।
21. जिन तालाबों में ग्रामवासी निस्तार करते हैं, मवेशियों को धोते हैं एवं गलियों का निस्तारी जल बहकर आता है, ऐसे तालाबों मेंकच्चा गोबर एवं रासायनिक खाद डालने की आवश्यकता कम होती है।
22. तालाब की नियमित चौकीदारी करें।
23. तालाब में किए जाने वाले कार्यों को दिनांकवार पंजीबद्ध करें तथा संबंधित अधिकारियों के मांगने पर अवश्य दिखायें
24. ग्रामीण तालाबों में मत्स्याखेट के लिए ऐसे समय का चुनाव करना चाहिये 'जब उसमें जल स्तर ज्यादा हो। प्रायः अक्टबूर से फरवरी तक सम्पूर्ण मत्स्याखेट करा लें इससे तालाब का पानी गंदा नहीं होगा, ग्रामीणों को निस्तार में असुविधा नहीं होगी तथा विक्रय राशि अच्छी मिलेगी।
25. 16 जून से 15 अगस्त तक मत्स्याखेट बंद रखें। इस अवधि में परिपक्व मछलियां अंडे देती हैं, इस अवधि में नदियों नालों एवं इनसे जुड़े जलक्षेत्रों में मत्स्याखेट करने पर 5000 रूपये तक जुर्माना तथा एक वर्ष करावास की सजा का प्रावधान है।
26. प्रति वर्ष दुर्घटना बीमा करायें मछुओं के दुर्घटनाग्रस्त होने, विकलांग होने अथवा मृत्यु होने पर तत्काल मत्स्य विभाग के अधिकारी को सूचित करें।
27. विकटतम मत्स्य अधिकारी से सतत सम्पर्क बनाये रखे।

मत्स्य पालन-क्या करें और क्या न करें


क्या करें

1. मत्स्य बीज संचयन के पूर्व तालाब की पूर्ण तैयारी।
2. पानी के आगम एवं निर्गम द्वार पर जाली लगावें।
3. तालाब की अवांछित एवं मांसाहारी मछलियां/खरपतवार का सफाया।
4. तालाब में खाद, चूना डालने के (15 दिन) बाद मत्स्य बीज संचय।
5. मत्स्य बीज संचय माह जुलाई से सितम्बर के बीच ही करें।
6. मत्स्य बीज संचय प्रातः काल करें।
7. मत्स्य बीज कतला, रोहू और मृगल सही अनुपात मेंसचं य करें।
8. समय-समय पर तालाबों में जाल चलाकर बीज की बढ़त देखते रहें,
9. मछलियों की बीमारी ज्ञात होने पर तुरन्त विभागीय अधिकारियों से सपंर्क कर उपचार करें।
10. मत्स्य बीज को मत्स्य विभाग या अधिकृत विक्रेता से ही खरीदें।
11. अधिक वीड्‌स (खरपतवार), वनस्पति वाले तालाबों में ग्रास कार्य मछली का संचय करें।
12. अधिक उत्पादन हेतु तालाब मेंएरिएटर का उपयोग करें।
13. ग्रीष्म ऋतु मेंजल स्तर बनाये रखे कुंए ट्‌यूबवेल, नहर, नदियाँ, पम्प द्वारा।
14. छोटे तालाबों में मछली पालन के साथ अन्य उत्पादन जैसे-मछली सह बत्तख पालन, मुर्गी, सुअर एवं फलोउद्यान का समन्वित कार्यक्रम लें.

क्या न करें.

1. तलाब में मत्स्य जीरा संचयन न करें।
2. निर्धारित मात्रा से अधिक मत्स्य बीज संचय न करें।
3. मछलियों की बीमारी का उपचार तकनीकी निर्देद्गा के बिना न करें।
4. एल्गल ब्लूम (काई) अधिक होने पर तालाब में खाद न डालें।
5. अवांछनीय/खाऊ मछली का संचय तालाब में न करें।
6. कीड़ों जीव जन्तु/पानी का बिच्छु आदि को निकाल बाहर फेकें एवं मार डालें।
7. खरपतवार के उन्मूलन हेतु बिना तकनीकी सलाह के दवाओं का उपयोग न करें।
8. मछलियां मारने में जहर का उपयोग वर्जित है।
9. बड़े तालाबों सें 1 कि.ग्रा. से छोटी मछली न निकालें।

मलेरिया रोग के जैविक नियंत्रण में गम्बुसिया मछली का महत्व

गम्बुसिया मछली मलेरिया, फाईलेरिया आदि बीमारियों के नियंत्रण के लिए अत्यधिक उपयोगी एवं लाभप्रद सिद्ध हुई है, गम्बुसिया मछली उत्तरी अमेरिका लेबिस्टीस मछली दक्षिण अमेरिका की निवासी है, गम्बुसियां मछली सन्‌ 1928 में भारत लाई गई थी, इसका वैज्ञानिक नाम गम्बुसिया एफिनिस है यह 24 घंटे में 27 से 100 मच्छरों के लार्वा को खाती है एवं प्रतिवर्ष कम से कम 10 बार प्रजनन करती है, इसके प्रतिकुल परिस्थितियों में भी जीवित रहने की क्षमता के कारण इसे रोग की रोकथाम हेतु रूके हुए पानी में एवं नालों मे संचित किया जाता है। लेबिस्टीस मछली भी उक्त रोगों के रोकथाम के लिए उपयोगी हैं, जो लार्वा का भक्षण करती है, इसका वैज्ञानिक नाम बारबेडोस मिलियन्स है इसमें भी लाखों की संखया में अंडे देने की क्षमता होती है इसे साधारण भाषा में गप्पी मछली भी कहते हैं। गम्बुसियां मछली छोटे-छोटे जलीय कीड़े, मच्छरों के लार्वा एवं इल्लीभोजी स्वभाव होने के कारण मलेरिया, फायलेरिया रोग की रोकथाम के लिए जैविक नियंत्रण में लाभप्रद है। इस मछली को बारहमासी एवं बरसात में रूके हुए छोटे-छोटे गड्‌डो के पानी एवं गन्दे पानी के नालों में डालते हैं जहां पर मच्छर अपने अंडे देते हैं, ऐसे स्थानों में रूके हुए पानी के ऊपर मच्छर अपने अंडे, प्यूपा, लार्वा देते है जिन्हें गम्बुसिया मछली अपना भोजन बनाती है, जिससे रोग नियंत्रण में सहायता मिलती है।
स्त्रोत - मछुआ कल्याण और मत्स्य विकास विभाग,मध्यप्रदेश सरकार

Sunday 22 January 2017

मत्स्य पालन के अंतर्गेत पाली जाने वाली मछलियां

  1. भारतीय प्रमुख शफर-कतला
  2. भारतीय प्रमुख शफर-रोहू
  3. भारतीय प्रमुख शफर-मृगल
  4. विदेशी प्रमुख शफर-सिल्वरकार्प
  5. विदेशी प्रमुख शफर-ग्रासकार्प
  6. विदेशी प्रमुख शफर-कामन कार्प

मत्स्य पालन मे पाली जाने वाली मछलियाँ
भारतीय प्रमुख शफर- इसकी संख्या तीन हैं-
(1) कतला
(2) रोहू
(3) मृगल

भारतीय प्रमुख शफर-कतला

वैज्ञानिक नाम. कतला कतला
सामान्य नाम. कतला, भाखुर
भौगोलिक निवास एवं वितरण
कतला एक सबसे तेज बढ़ने वाली मछली है यह गंगा नदी तट की प्रमुख प्रजाति है। भारत में इसका फैलाव आंध्रप्रदेश की गोदावरी नदी तथा कृष्णा व कावेरी नदियों तक है। भारत में आसाम बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश में सामान्यतया कतला के नाम से, उड़ीसा में भाखुर, पंजाब में थरला, आंध्र में बीचा, मद्रास में थोथा के नाम से जानी जाती है।
पहचान के लक्षण
शरीर गहरा, उत्कृष्ट सिर, पेट की अपेक्षा पीठ पर अधिक उभार, सिर बड़ा, मुंह चौड़ा तथा ऊपर की ओर मुड़ा हुआ, पेट ओंठ, शरीर ऊपरी ओर से धूसर तथा पार्श्व पेट रूपहला तथा सुनहरा, पंख काले होते हैं।
भोजन की आदत
यह मुख्यतः जल के सतह से अपना भोजन प्राप्त करती है। जन्तु प्लवक इसका प्रमुख भोजन है। 10 मिली मीटर की कतला (फाई) केवल यूनीसेलुलर, एलगी, प्रोटोजोअन, रोटीफर खाती है तथा 10 से 16.5 मिली मीटर की फ्राई मुख्य रूप से जन्तुप्लवक खाती है, लेकिन इसके भोजन में यदा-कदा कीड़ों के लार्वे, सूक्ष्म शैवाल तथा जलीय घास-पात एवं सड़ी-गली वनस्पति के छोटे दुकड़ों का भी समावेश होता है।
अधिकतम साईज
लंबाई1.8मीटर व वजन 60 किलो ग्राम ।
परिपक्वता एवं प्रजनन
कतला मछली 3 वर्ष में लैगिंक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। मादा मछली में मार्च माह से तथा नर में अप्रैल माह से परिपक्वता प्रारंभ होकर जून माह तक पूर्ण परिपक्व हो जाते है। यह प्राकृतिक नदी वातावरण में प्रजनन करती है। वर्षा ऋतु इसका मुख्य प्रजनन काल है।
अण्ड जनन क्षमता
इसकी अण्ड जनन क्षमता 80000 से 150000 अण्डे प्रतिकिलो ग्राम होती है, सामान्यतः कतला मछली में 1.25 लाख प्रति किलो ग्राम अण्डे देने की क्षमता होती है। कतला के अण्डे गोलाकार, पारदKatalaर्शी हल्के लाल रंग के लगभग 2 से 2.5 मि.मी. व्यास के जो निषेचन होने पर पानी में फूलकर 4.4 से 5 मि.मी. तक हो जाते है, हेचिंग होने पर हेचलिंग 4 से 5 मि.मी. लंबाई के पारदर्शी होते है।
आर्थिक महत्व
भारतीय प्रमुख शफर मछलियों में कतला मछली शीध्र बढ़ने वाली मछली है, सघन मत्स्य पालन मछलियों इसका महत्वपूर्ण स्थान है, तथा प्रदेश के जलाशयों एवं छोटे तालाबों में पालने योग्य है। एक वर्ष के पालन में यह 1 से 1.5 किलोग्राम तक वजन की हो जाती है। यह खाने में अत्यंत स्वादिष्ट तथा बाजारों में ऊंचे दाम पर बिकती है।

भारतीय प्रमुख शफर-रोहू

भारतीय प्रमुख शफर (2) रोहू
वैज्ञानिक नाम . लोबियो रोहिता
सामान्य नाम - रोहू
भौगोलिक निवास एवं वितरण
सर्वप्रथम सन्‌ 1800 में हेमिल्टन ने इसकी खोज की तथा इसका नाम साइप्रिनस डेन्टी कुलेटस रखा बाद मेंनाम परिवर्तित होकर रोहिता बुचनानी, पुनः बदलकर लेबियो डुममेर तथा अंत मेंइसका नाम करण लोबियो रोहिता दिया गया। हेमिल्टन ने इस मछली को निचले बंगाल की नदियों से पकड़ा था। सन्‌ 1925 में यह कलकता से अण्डमान, उड़ीसा तथा काबेरी नदी में तथा दक्षिण की अनेक नदियों एवं अन्य प्रदेशों में 1944 से1949 के मध्य ट्रांसप्लांट की गई तथा पटना से पाचाई झील बाम्बे में सन्‌ 1947 में भेजी गई। यह गंगा नदी की प्रमुख मछली होने के साथ ही जोहिला सोन नदी में भी पायी जाती है। मीठे पानी की मछलियों में इस मछली के समान, प्रसिद्धी किसी और मछली ने नहीं प्राप्त की।
व्यापारिक दृष्टि में यह रोहू या रोही के नाम से जानी जाती है। इसकी प्रसिद्ध का कारण इसका स्वाद, पोषक मूलक आकार, देखने में सुन्दर तथा छोटे बड़े पोखरों में पालने हेतु इसकी आसान उपलब्धता है।
पहचान के लक्षण
शरीर सामान्य रूप से लंबा, पेट की अपेक्षा पीठ अधिक उभारी हुई, थुंथन झुका हुआ जिसके ठीक नीचे मुंह स्थिति, आंखें बड़ी, मुंह छोटा, ओंठ मोटे एवं झालरदार, अगल-बगल तथा नीचे का रंग नीला रूपहला, प्रजनन ऋतु में प्रत्येक शल्क पर लाल निशान, आंखें लालिमा लिए हुए, लाल-गुलाबी पंख, पृष्ठ पंख में12 से 13 रेजं (काँटें)होते हैं।
भोजन की आदत
सतही क्षेत्र के नीचे जल के स्तंभ क्षेत्र में उपलब्ध जैविक पदार्थ तथा वनस्पतियों के टुकड़े आदि इसकी मुख्य भोजन सामग्री हुआ करती है। विभिन्न वैज्ञानिकों ने इसके जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में भोजन का अध्ययन किया जिसमें (वै.मुखर्जी) के अनुसार योक समाप्त होने के बाद 5 से 13 मिलीमीटर लंबाई का लार्वा बहुत बारीक एक कोशिकीय, एल्गी खाता है तथा 10 से 15 मिली मीटर अवस्था पर क्रस्टेशियन, रोटिफर, प्रोटोजोन्स एवं 15 मिलीमीटर से ऊपर तन्तुदार शैवाल (सड़ी गली वनस्पति) खाती है।
अधिकतम साईज
अधिकतम लम्बाई 1 मीटर तक तथा इसका वजन विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा निम्नानुसार बताया गया है। वैज्ञानिक होरा एवं पिल्ले के अनुसार- प्रथम वर्ष में 675 से 900 ग्राम दूसरे वर्ष में 2 से 3 किलोग्राम, तृतीय वर्ष में 4 से 5 किलोग्राम।
परिपक्वता एवं प्रजनन
यह दूसरे वर्ष के अंत तक लैगिक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है, वर्षा ऋतु इसका मुख्य प्रजनन काल है, यह प्राकृतिक नदी परिवेश में प्रजनन करती है। यह वर्ष में केवल एक बार जून से अगस्त माह में प्रजनन करती है।
अण्ड जनन क्षमता
शारीरिक डीलडौल के अनुरूप इसकी अण्ड जनन की क्षमता प्रति किलो शरीर भार 2.25 लाख से 2. 80 लाख तक होती है। इसके अण्डे गोल आकार के 1.5 मि.मी. व्यास के हल्के लाल रंग के न चिपकने वाले तथा फर्टीलाइज्ड होने पर 3 मि.मी. Rohuआकार के पूर्ण पारदर्शी  हो जाते है फर्टिलाईजेशन के 16-22 धंटों में हेचिंग हो जाती है (मुखर्जी 1955) के अनुसार हेचिंग होने के दो दिन पश्चात्‌ हेचिलिंग के मुंह बन जाते है, तथा यह लार्वा पानी के वातावरण से अपना भोजन आरंभ करना प्रारंभ कर देता है।
आर्थिक महत्व
रोहू का मांस खाने में स्वादिष्ट होने के कारण खाने वालो को बहुत प्रिय है, भारतीय मेजर कार्प में रोहू सर्वाधिक बहुमूल्य मछलियों में से एक है, यह अन्य मछलियों के साथ रहने की आदी होने के कारण तालाबों एवं जलाशयों में पालने योग्य है, यह एक वर्ष की पालन अवधि में 500 ग्राम से 1 किलोग्राम तक वजन प्राप्त कर लेती है। स्वाद, सुवास, रूप व गुण सब में यह अव्वल मानी जाती है जिसके कारण बाजारों में यह काफी ऊँचे दामों पर प्राथमिकता में बिकती है।

भारतीय प्रमुख शफर-मृगल

भारतीय प्रमुख शफर (3)मृगल
वैज्ञानिक नाम . सिरहिनस मृगाला
सामान्य नाम . मृगल, नैनी, नरेन आदि
भौगोलिक निवास एवं वितरण
सर्वप्रथम वैज्ञानिकों ने इस मछली को सीप्रीनस मृगाला नाम दिया इसके पश्चात्‌ नाम बदलकर सिरहीना मृगाला नाम दिया गया। यह भारतीय मेजर कार्प की तीसरी महत्वपूर्ण मीठे पानी में पाली जाने वाली मछली है, इस मछली को पंजाब में मोरी, उतर प्रदेश व बिहार में नैनी, बंगाल, आसाम में मृगल, उड़ीसा में मिरिकली तथा आंध्रप्रदेश में मेंरीमीन के नाम से जानते हैं, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ एवं शहडोल में इसे नरेन कहते हैं। मृगल गंगा नदी सिस्टम की नदियों व बंगाल, पंजाब, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, आन्ध्र प्रदेश आदि की नदियों में पाई जाती है, अब यह भारत के लगभग सभी नदियों व प्रदेशों में जलाशयों एवं तालाबों में पाली जाने के कारण पाई जाती है।
पहचान के लक्षण
तुलनात्मक रूप से अन्य भारतीय कार्प मछलियों की अपेक्षा लंबा शरीर, सिर छोटा, बोथा थूथन, मुंह गोल, अंतिम छोर पर ओंठ पतले झालरहीन रंग चमकदार चांदी सा तथा कुछ लाली लिए हुए, एक जोड़ा रोस्ट्रल बार्वेल,(मूँछ) छोटे बच्चों की पूंछ पर डायमण्ड (हीरा) आकार का गहरा धब्बा, पेक्ट्रोरल, वेन्ट्रल एवं एनल पखों का रंग नारंगी जिसमें काले रंग की झलक, आखें सुनहरी।
भोजन की आदतें
यह एक तलवासी मछली है, तालाब की तली पर उपलब्ध जीव जन्तुओं एवं वनस्पतियों के मलवे,शैवाल तथा कीचड़ इसका प्रमुख भोजन है। वैज्ञानिक मुखर्जी तथा घोष ने (1945) में इन मछलियों के भोजन की आदतों का अध्ययन किया और पाया कि यह मिश्रित भोजी है। मृगल तथा इनके बच्चों के भोजन की आदतों में भी कोई विशेष अंतर नहीं है। जून से अक्टूबर माह में इन मछलियों के खाने में कमी आती देखी गई है।
अधिकतम साईज
लंबाई 99 से.मी. तथा वजन 12.7 कि.ग्राम, सामान्यतः एक वर्ष में 500-800 ग्राम तक वजन की हो जाती है।
परिपक्वता एवं प्रजनन
मृगल एक वर्ष में लैगिंक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। इसका प्रजनन काल जुलाई से अगस्त तक रहता है। मादा की अपेक्षा नर अधिक समय तक परिपक्व बना रहता है यह प्राकृतिक नदी वातावरण में वर्षा ऋतु में प्रजनन करती है। प्रेरित प्रजनन विधि से शीघ्र प्रजनन कराया जा सकता है।
अण्ड जनन क्षमता
वैज्ञानिक झीगंरन एवं अलीकुन्ही के अनुसार यह मछली प्रति किलो शरीर भार के अनुपात में 1.25 से 1. 50 लाख अण्डे देती है, जबकि चक्रवर्ती सिंग के अनुसार 2.5 Mirgalकिलो की मछली 4.63 लाख अण्डे देती है, सामान्य गणना के अनुसार प्रति किलो शरीर भार के अनुपात में 1.00 लाख अण्डे का आंकलन किया गया है। मृगल के अण्डे 1.5 मिली मीटर ब्यास के तथा निषेचित होने पर पानी मे फूलकर 4 मिलीमीटर ब्यास के पारदर्शी तथा भूरे रंग के होते हैं, हेचिंग अवधि 16 से 22 धंटे होती है।
आर्थिक महत्व
मृगल मछली भोजन की आदतों में विदेशी मेजर कार्प कामन कार्प से कुछ मात्रा में प्रतियोगिता करती है, किन्तु साथ रहने के गुण होने से सघन पालन में अपना स्थान रखती है जिले के लगभग सभी जलाशयों व तालाबों में इसका पालन किया जाता है। एक वर्ष की पालन अवधि में यह 500 से 800 ग्राम वजन प्राप्त कर लेती है अन्य प्रमुख कार्प मछलियों की तरह यह भी बाजारों में अच्छे मूल्य पर विक्रय की जाती है। राहू मछली की तुलना में मृगल की खाद्य रूपान्तर क्षमता तथा बाजार मूल्य कम होने के कारण आंध्रप्रदेश में सघन मत्स्य पालन में मृगल का उपयोग न कर केवल कतला प्रजाति 20 से 25 प्रतिशत तथा रोहू 75 से 80 प्रतिशत का उपयोग किया जा रहा है।

विदेशी प्रमुख शफर-सिल्वरकार्प

विदेशी प्रमुख सफर इसकी संख्या भी तीन हैं-
(1)सिल्वरकार्प
(2)ग्रासकार्प
(3)कामनकार्प
वैज्ञानिक नाम . हाइपोफ्थैलमिक्थिस माँलिट्रिक्स
सामान्य नाम . सिल्वर कार्प
भौगोलिक निवास एवं वितरण
सिल्वर कार्प मछली चीन देश की है, भारत में इसका सर्व प्रथम 1959 में प्रवेश हुआ। जापान की टोन नदी से उपहार के रूप में 300 नग सिल्वर कार्प फिंगरलिंग औसत वजन 1.4 ग्राम तथा औसतन 5 सेन्टीमीटर लंबाई व 2 माह आयु की मछली की एक खेप भारत में प्रथमतः केन्द्रीय अन्तः स्थलीय मछली अनुसंधान संस्थान कटक (उड़ीसा) से लाई गईं। इस मछली को लाने का उद्देश्य सीमित जगह से सस्ता मत्स्य भोजन प्राप्त करना था आज यह मध्यप्रदेश के अनेक तालाबों में पालन करने के कारण आसानी से उपलब्ध है।
पहचान के लक्षण
शरीर अगल बगल में चपटा सिर साधारण, मुंह बड़ा तथा निचला जबड़ा ऊपर की ओर हलका मुड़ा हुआ, आंखे छोटी तथा शरीर की अक्ष रेखा के नीचे, शल्क छोटे, पृष्ठ वर्ण का रंग काला धूसर तथा बाकी शरीर रूपहला (सुनहरा) रंग का होता है।
भोजन की आदतें
यह जल के सतही तथा मध्य स्तर से अपना भोजन प्राप्त करती है। वनस्पति प्लवक इसका मुख्य पसंदीदा भोजन है, इसका भोजन नली शरीर की लंबाई से लगभग 6 से 9 गुणा बड़ी होती है। इसके लार्वा (बच्चे) 12 से 15 मिलीमीटर आकार के फ्राई, जन्तुप्लवक को अपना भोजन बनाती है, तथा बाद में यह वनस्पति प्लवक को खाती है।
अधिकतम आकार
इसका वृद्धि दर भारतीय प्रमुख सफर मछलियों की अपेक्षा बहुत तीव्रतर है सन्‌ 1992-93 में मुंबई के पवई लेक में आँक्सीजन की भारी कमी हो जाने के कारण बड़ी संखया में सिल्वर कार्प मछलियाँ मर गईं । इन मछलियों में अधिकतम आकार वाली सिल्वर कार्प की लंबाई 1.02 मीटर तथा वजन लगभग 50 किलोग्राम था इसकी वृद्धि प्रदेश में भी अच्छी देखी गई है। परन्तु इसकी उपस्थिति से कतला मछली की वृद्धि प्रभावित होती है।
परिपक्वता एवं प्रजजन
चीन मेंयह 3 वर्षो में प्रजनन हेतु परिपक्व होती है, तथा भारत में यह 2 वर्ष की आयु में लैगिंक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। स्ट्रिपिंग विधि द्वारा इसको प्रेरित प्रजनन कराया जाता है। इन मछलियों का प्रजनन काल, चीन में अप्रैल से प्रारंभ होकर जून तक, वर्षाकाल में नदियों में, जापान में मई जून से प्रारंभ होकर जुलाई तक, रूस में बसंतSilvercop ऋतु में बहते हुए पानी की धारा में ऊपर की ओर आकर प्रजनन करती है,भारत में सन्‌ 1961 में रूके हुए पानी पर मार्च के मध्य में परिपक्वता की स्थिति तथा जुलाई अगस्त में पूर्ण परिपक्व होने पर प्रजनन हेतु स्ट्रिप किया गया था। प्रदेश में इसका प्रजनन काल वर्षा ऋतु में माह जून से अगस्त तक होता है।
अण्ड जनन क्षमता
इसकी अण्ड जनन क्षमता औसतन लगभग एक लाख प्रति किलोग्राम भार होती है, अण्डे पानी में डूबने वाले होते हैं, इसका आकार 1.35 मिलीमीटर व निषेचित होने पर पानी में फूलकर 4 से 7 मिलीमीटर व्यास के होते हैं। हेचिंग 28 से 31 डिग्रीसेन्टी ग्रेड पर 18 से 20 घंटे पर होता है, हेचलिंग का आकार 4.9 मिली मीटर तथा योक सेक भारतीय प्रमुख सफर के सामान दो दिनों में समाप्त हो जाता है।
आर्थिक महत्व
शीघ्र वृद्धि वाली मछलियों की आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए सन्‌ 1959 में जापान से लाई जाकर कटक अनुसंधान केन्द्र में रखी गई। प्रयागों के आधार पर यह पाया गया है, कि भोजन संबंधी आदतों में कतला से समानता होते हुए भी पर्याप्त भिन्नताएं हैं। कार्प मछलियों के मिश्रित पालन विधि में सिल्वरकार्प एक प्रमुख प्रजाति के रूप में प्रयुक्त होती है। इसकी बाढ़ काफी तेज लगभग 6 माह के पालन में ही एक किलो ग्राम की हो जाती है। कतला की अपेक्षा सिल्वरकार्प में काटें कम होते हैं, भारतीय प्रमुख सफर की अपेक्षा इसका बाजार भाव कम है। स्वाद के कारण भारतीय प्रमुख सफर मछलियों की तरह मत्स्य पालकों ने इसे बढ़ावा नहीं दिया।

विदेशी प्रमुख शफर-ग्रासकार्प

विदेशी प्रमुख सफर 5. ग्रासकार्प
वैज्ञानिक नाम - टीनोफैरिंगोडोन इडेला
सामान्य नाम - ग्रासकार्प
भौगोलिक निवास एवं वितरण
साईबेरिया एवं चीन देश की समशीतोष्ण जलवायु की, पेसिफिक सागर में मिलने वाली नदियां ग्रासकार्प की प्राकृतिक निवास स्थान है। यह मछली समशीतोष्ण तथा गर्म जलवायु के कई देशों में प्रत्यारोपित की गई तथा अब यह उस देशों की प्रमुख भोजन मछली के रूप में जानी जाती भोज्य है। ग्रासकार्प मलू रूप से चीन देश की मछली है, इसे भारत में 22.11.1959 को हांगकांग से औसतन 5 माह आयु की 5.5 सेन्टीमीटर लम्बाईयुक्त औसतन वजन 1.5 ग्राम की 383 अंगुलिकाएं प्राप्त कर लाई गई तथा भारत के केन्द्रीय अंतःस्थली मछली अनुसंधान संस्थान कटक (उड़ीसा) के किला मत्स्य प्रक्षेत्र में रखी गई। यहां से आज यह भारत के समस्त प्रदेशों के जलाशयों एवं तालाबों में पाली जा रही है।
पहचान के लक्षण
शरीर लम्बा, हल्का सपाट मुंह चौड़ा तथा नीचे की ओर मुड़ा हुआ, निचला जबड़ा अपेक्षाकृत छोटा, आंखें छोटी, पृष्ठ पंख छोटा, पूंछी का भाग अगल बगल से चपटा तथा फैरेजियल दांत धांस पांत खाने के योग्य बने हुए। पीठ और आजू-बाजू का रंग हल्का रूपहला (सुनहरा चमकदार) तथा पेट सफेद।
भोजन की आदतें
यह मुख्यतः जलों के मध्य एवं निचले स्तरों में वास करती है, तथा आमतौर पर भोजन की तलाद्गा मछलियों तालाबों के तटबंधों के करीब तैरती फिरती है। 150 मिलीमीटर से अधिक लंबी ग्रास कार्प विभिन्न प्रकार कीजलीय एवं स्थलीय वनस्पतियां, आलू, अनाज, चावल की भूसी, गोभी तथा सब्जियों के पत्ते एवं तने को खाती है । विभिन्न वैज्ञानिकों के अध्ययन के दौरान पाया गया कि ग्रासकार्प का लार्वा केवल जन्तु प्लवक खाता है, तथा 2 से 4 से.मी. लम्बाई का बच्चा बुल्फिया वनस्पति खाता है। भारत मेंबड़ी ग्रास कार्प मछलियों पर देखा गया कि 1 किलोग्राम मछली प्रतिदिन 2.5 किलो से3 किलोग्राम तक हाईड्रिला वनस्पति को खा जाती है।
प्राथमिकता के आधार पर ग्रासकार्प द्वारा खाई जाने वाली जलीय वनस्पति निम्नानुसार हैः-
1. हाईड्रिला 2. नाजास 3. सिरेटोफाईलम 4. ओटेलिया 5. बेलीसनेरिया 6.यूट्रीकुलेरिया 7. पोटेमाजेटान 8. लेम्ना 9. ट्रापा 10. बुल्फिया 11. स्पाईरोडेला 12. ऐजोला आदि
अधिकतम आकार
ग्रासकार्प की वृद्धि दर मुख्यतः संचयन की दर व भोजन की मात्रा जो उसे प्रतिदिन दी जाती है पर निर्भर करती है। इसकी वृद्धि काफी तेज होती है एक वर्ष में यह अममून 35 से 50 सेन्टीमीटर की लंबाई तथा 2.5 किलोग्राम से अधिक वजन की हो जाती है।
परिपक्वता एवं प्रजनन
ग्रास कार्प किस आयु तथा आकार में परिपक्व होती है यह भिन्नता उसके प्राकृतिक निवास तथा ट्रांसप्लांटेड निवास पर भिन्न भिन्न है। भारत वर्ष में ग्रास कार्प नर मछली 2 वर्ष में तथा मादा 3 वर्ष में लैगिंक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है ग्रास कार्प वर्ष में एक ही बार प्रजनन करती है, यद्धपि रूस में तापक्रम के उतार चढ़ाव के कारण एमुर नदी तंत्र में कुछ मछलियां पारी पारी से प्रजनन करती पाई गई है। आज भारत के लगभग सभी प्रदेशों में ग्रास कार्प का पोखरों में स्ट्रिपिगं विधि द्वारा प्रेरित प्रजनन कराया जा रहा है।
अण्ड जनन क्षमता
इसकी अण्डजनन क्षमता औसतन प्रति किलो ग्राम भार 75000 से 100000 अण्डे तक आंकी गई है।ग्रास कार्प के अण्डों का आकार गोलाकार 1.27 मिलीमीटर ब्यास जो फर्टीलाईज्ड होकर पानी में फूल कर 4.58मिलीमीटर ब्यास का हो जाता है। भारतीय परिस्थितियों के अनुसार हेचिंग 18 से 20 घंटे एवं 23 से 32 डिग्री सेंटीग्रेट पर होता है, हेचलिंग का आकार 5.86 से 6.05 मिलीमीटर आंका गया है। हेचिंग होने के 2 दिन बाद पीतक थैली (याँक सेक) पूर्णतः समाप्त हो जाता है।
आर्थिक महत्व
ग्रास कार्प मलू रूप से चीनी देश की मछली है, तथा जलीय परिवेश मेंखर-पतवार के नियंत्रण के लिए यह विश्व के कई देशों में ले जाई गई हैं प्रयोगों के आधार पर यह देखने में आया कि कार्प मछलियों के मिश्रित/सधन पालन प्रणाली के अंतर्गत इसका समावेश काफी लाभकारी होता है एवं जल पौधों के नियंत्रण केलिए यह काफी उपयोग है। संवर्धन तालाबों में तालाब के क्षेत्र फल के आधार पर इसकी संचयन संख्या निर्धारित की जाती है। एक वर्ष के पालन अवधि में उपलब्ध कराए गए भोजन के अनुरूप यह 2 से 5 किलोग्राम की हो जाती है। ग्रास कार्प का बाजार भाव अच्छा है, और ग्राहक इसे खरीदना पसंद करते हैं।

विदेशी प्रमुख शफर-कामन कार्प

विदेशी प्रमुख सफर 6. कामन कार्प
वैज्ञानिक नाम. साइप्रिनस कार्पियो
सामान्य नाम . कामन कार्प, सामान्य सफर, अमेरिकन रोहू
भौगोलिक निवास एवं वितरण
कॉमन कार्प मछली मूलतः चीन देश की है केस्पियन सागर के पूर्व में तुर्किस्तान तक इसका प्राकृतिक घर है। भारत वर्ष में कॉमन कार्प का प्रथम पदार्पण मिरर कार्प उपजाति के रूप में सन्‌1930 में हुआ था, इसके नमूने श्रीलंका से प्राप्त किए गए थे। इसे लाकर प्रथमतः ऊटकमंड (उंटी) झील में रखा गया था, देखतेदेखते मिरर कार्प देश के पर्वतीय क्षेत्रों की एक जानी पहचानी मछली बन गई। इस मछली को भारत में लाने का उद्देश्य ऐसे क्षेत्र जहां तापक्रम बहुत निम्न होता है, वहां भोजन के लिए खाने योग्य मछली की बृद्धि केलिए लाया गया था।कॉमन कार्प की दूसरी उपजाति स्केल कार्प भारत वर्ष में पहली बार सन्‌ 1957 में लाई गई। जब बैंकाक से कुछ नमूने प्राप्त किए गए थें परिक्षणों के आधार पर यह शीघ्र स्पष्ट हो गया कि यह एक प्रखर प्रजनक है, तथा मैदानी इलाकों में पालने के लिए अत्यन्त उपयोगी है। आज स्केल कार्प देश के प्रायः प्रत्येक प्रान्तों म0प्र0 एवं शहडोल के तालाबों में पाली जा रही है।
पहचान के लक्षण
शरीर सामान्य रूप से गठित, मुंह बाहर तक आने वाला सफर के समान, सूंघों (टेटेकल) की एक जोड़ी विभिन्न क्षेत्रों में वहां की भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर इसकी शारीरिक बनावट में थोड़ा अंतर आ गया है, अतः विश्व में विभिन्न क्षेत्रों में यह एशियन कार्प, जर्मन कार्प, यूरोपियन कार्प आदि के नाम से विख्यात है।
साधारण तौर पर कॉमनकार्प की निम्नलिखित तीन उपजातियाँ उपलब्ध है-
1. स्केल कार्प (साइप्रिनस काप्रियोबार कम्युनिस) इसके शरीर पर शल्कों की सजावट नियमित होती है।
2. मिरर कार्प (साइप्रिनस काप्रियोबार स्पेक्युलेरिस) इसके शरीर पर शल्कों की सजावट थोड़ी अनियमित होती है तथा शल्कों का आकार कहीं बड़ा व कहीं छोटा तथा चमकीला होता है। अंगुलिका अवस्था मछलियों एक्वेरियम हेतु यह एक उपयुक्त प्रजाति है।
3. लेदर कार्प (साइप्रिनस काप्रियोबार न्युडुस) इसके शरीर पर शल्क होते ही नहीं है अर्थात्‌ इसका शरीर एकदम चिकना होता है।
भोजन की आदतें
यह एक सर्वभक्षी मछली है। कॉमन कार्प मुखयतः तालाब की तली पर उपलब्ध तलीय जीवाणुओं एवं मलवों का भक्षण करती है। फ्राय अवस्था में यह मुख्य रूप से प्लेक्टान खाती है। कृत्रिम आहार का भी उपयोग कर लेती है।
अधिकतम आकार
भारत वर्ष में इसकी अधिकतम साईज 10 किलोग्राम तक देखी गई है। इसका सबसे बड़ा गुण यह है, कि यह एक समशीतोष्ण क्षेत्र की मछली होकर भी उन परिस्थितियों में निम्न तापक्रम के वातावरण में संतोषप्रदरूप में बढ़ती है, एक वर्ष की पालन में यह 900 ग्राम से 1400 ग्राम तक वजन की हो जाती है।
परिपक्वता एवं प्रजनन
भारत वर्ष में लाये जाने के बाद तीन वर्ष की आयु में अपने आप ही ऊंटी झील में प्रजनन किया। गर्म प्रदेशों में 3 से 6 माह में ही लैगिंक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। यह मछली बंधे हुए पानी जैसे- तालाबों,कुंडो आदि में सुगमता से प्रजनन करती है। यह हांलाकि पूरे वर्ष प्रजनन करती है, परन्तु मुख्य रूप से वर्ष में दो बार क्रमश: जनवरी से मार्च में एवं जुलार्इ्र से अगस्त में प्रजनन करती है, जबकि भारतीय मेजर कार्प वर्ष मछलियां केवल एक बार प्रजनन करती है। कॉमन कार्प मछली अपने अण्डे मुख्तय: जलीय पौधों आदि पर जनती है,इसके अण्डे चिपकने वाले होने के कारण जल पौधों की पत्तियों, जड़ों आदि से चिपक जाते है, अण्डों का रंगमटमैला पीला होता है।
अण्ड जनन क्षमता
कॉमन कार्प मछलियों की अण्डजनन क्षमता प्रति किलो भार अनुसार 1 से 1.5 लाख तक होती है, प्रजनन काल के लगभग एक माह पूर्व नर मादा को अलग-अलग रखने से वे प्रजनन के लिए ज्यादा प्रेरितहोती है, सीमित क्षेत्र में हापा में प्रजनन कराने हेतु लंबे समय तक पृथक रखने के बाद एक साथ रखना प्रजनन के लिए प्रेरित करता है, अण्डे संग्रहण के लिए ऐसे हापों तथा तालाबों में हाइड्रीला जलीय पौधों अथवा नारियल की जटाओं का उपयोग किया जाता है। कॉमन कार्प मछलियों में निषेचन, Common Cropबाहरी होता है, अण्डों के हेचिंग की अवधि पानी के तापक्रम पर निभर्र करती है, लगभग 2-6 दिन हेचिंग में लगते है तापक्रम अधिक हो तो 36 घंटों मेंही हेचिंग हो जाती है। घंटे में याँक सेक समाप्त होने के पश्चात सामान्य रूप से घूमना फिरना शुरू कर पानी से अपना भोजन लेते हैं। 5 से 10 मिलीमीटर फ्राय प्रायः जंतु प्लवक को अपना भोजन बनाती है तथा 10-20 मिलीमीटर फ्रायसाइक्लोप्स, रोटीफर आदि खाती है।
आर्थिक महत्व
कॉमन कार्प मछली जल में घुमिल आक्सीजन का निम्न तथा कार्बन डाईआक्साईड की उच्च सान्द्रता अन्य कार्प मछलियों की अपेक्षा बेहतर झेल सकती है, और इसलिए मत्स्य पालन के लिए यह एक अत्यन्त ही लोकप्रिय प्रजाति है। एक वर्ष में यह औसतन 1 किलोग्राम की हो जाती है। यह आसानी से प्रजनन करती है इसलिए मत्स्य बीज की पूर्ति में विशेष महत्व है।
प्रारभ में जब यह मछली स्थानीय बाजारों में आई तब लोग इसे अधिक पसंद नहीं कर रहे थे, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता अब देश के सभी प्रदेशों  में भाज्य मछली के रूप में अच्छी पहचान बन गई है। कॉमन कार्पमछलियों का पालन पिजं रों मेंभी किया जा सकता है। मौसमी तालाबों हेतु यह उपयुक्त मछली है। परन्तु गहरे बारहमासी तालाबों में आखेट भरे कठिनाई तथा नित प्रजनन के कारण अन्य मछलियों की भी बाढ़ प्रभावित करने के कारण इसका संचय करना उपयुक्त नहीं माना जाता है।
स्त्रोत - मछुआ कल्याण और मत्स्य विकास विभाग,मध्यप्रदेश सरकार

Thursday 19 January 2017

मछली पालन कैसे करेें

  1. मछली पालन की तैयारी
  2. तालाब की तैयारी
  3. मत्स्य बीज संचयन
  4. ऊपरी आहार


मछली पालन की तैयारी

मछली हेतु तालाब की तैयारी बरसात के पूर्व ही कर लेना उपयुक्त रहता है। मछलीपालन सभी प्रकार के छोटे-बड़े मौसमी तथा बारहमासी तालाबों में किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त ऐसे तालाब जिनमें अन्य जलीय वानस्पतिक फसलें जैसे- सिंघाड़ा, कमलगट्‌टा, मुरार (ढ़से ) आदि ली जाती है, वे भी मत्स्यपालन हेतु सर्वथा उपयुक्त होते हैं। मछलीपालन हेतु तालाब में जो खाद, उर्वरक, अन्य खाद्य पदार्थ इत्यादि डाले जाते हैं उनसे तालाब की मिट्‌टी तथा पानी की उर्वरकता बढ़ती है, परिणामस्वरूप फसल की पैदावार भी बढ़ती है। इन वानस्पतिक फसलों के कचरे जो तालाब के पानी में सड़ गल जाते हैं वह पानी व मिट्‌टी को अधिक उपजाऊ बनाता है जिससे मछली के लिए सर्वोत्तम प्राकृतिक आहार प्लैकटान (प्लवक) उत्पन्न होता है। इस प्रकार दोनों ही एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं और आपस में पैदावार बढ़ाने मे सहायक होते हैं। धान के खेतों में भी जहां जून जुलाई से अक्टूबर नवंबर तक पर्याप्त पानी भरा रहता है, मछली पालन किया जाकर अतिरिक्त आमदनी प्राप्त की जा सकती है। धान के खेतों में मछली पालन के लिए एक अलग प्रकार की तैयारी करने की आवश्यकता होती है।
किसान अपने खेत से अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए खेत जोते जाते है, खेतों की मेड़ों को यथा समय आवश्यकतानुसार मरम्मत करता है, खरपतवार निकालता है, जमीन को खाद एवं उर्वरक आदि देकर तैयार करता है एवं समय आने पर बीज बोता है। बीज अंकुरण पश्चात्‌ उसकी अच्छी तरह देखभाल करते हुए निंदाई-गुड़ाई करता है, आवश्यकतानुसार नाइट्रोजन, स्फूर तथा पोटाश खाद का प्रयोग करता है। उचित समय पर पौधों की बीमारियों की रोकथाम हेतु दवाई आदि का प्रयोग करता है। ठीक इसी प्रकार मछली की अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए मछली की खेती में भी इन क्रियाकलापों का किया जाना अत्यावश्यक  होता है।

तालाब की तैयारी

मौसमी तालाबों में मांसाहारी तथा अवाछंनीय क्षुद्र प्रजातियों की मछली होने की आशंका नहीं रहती है तथापि बारहमासी तालाबों में ये मछलियां हो सकती है। अतः ऐसे तालाबों में जून माह में तालाब में निम्नतम जलस्तर होने पर बार-बार जाल चलाकर हानिकारक मछलियों व कीड़े मकोड़ों को निकाल देना चाहिए। यदि तालाब में मवेशी आदि पानी नहीं पीते हैं तो उसमें ऐसी मछलियों के मारने के लिए 2000 से 2500 किलोग्राम प्रति हेक्टयर प्रति मीटर की दर से महुआ खली का प्रयोग करना चाहिए। महुआ खली के प्रयोग से पानी में रहने वाले जीव मर जाते हैं। तथा मछलियां भी प्रभावित होकर मरने के बाद पहले ऊपर आती है। यदि इस समय इन्हें निकाल लिया जाये तो खाने तथा बेचने के काम में लाया जा सकता है। महुआ खली के प्रयागे करने पर यह ध्यान रखना आवश्यक  है कि इसके प्रयोग के बाद तालाब को 2 से 3 सप्ताह तक निस्तार हेतु उपयोग में न लाए जावें। महुआ खली डालने के 3 सप्ताह बाद तथा मौसमी तालाबोंमें पानी भरने के पूर्व 250 से 300 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से चूना डाला जाता है जिसमें पानी में रहने वाली कीड़े मकोड़े मर जाते हैं। चूना पानी के पी.एच. को नियंत्रित कर क्षारीयता बढ़ाता है तथा पानी स्वच्छ रखता है। चूना डालने के एक सप्ताह बाद तालाब में 10,000 किलोग्राम प्रति हेक्टर प्रति वर्ष के मान से गोबर की खाद डालना चाहिए। जिन तालाबों में खेतों का पानी अथवा गाठे ान का पानी वर्षा तु मेंबहकर आता है उनमें गोबर खाद की मात्रा कम की जा सकती है क्योंकि इस प्रकार के पानी में वैसे ही काफी मात्रा में खाद उपलब्ध रहता है। तालाब के पानी आवक-जावक द्वार मे जाली लगाने के समुचित व्यवस्था भी अवद्गय ही कर लेना चाहिए।
तालाब में मत्स्यबीज डालने के पहले इस बात की परख कर लेनी चाहिए कि उस तालाब में प्रचुर मात्रा में मछली का प्राकृतिक आहार (प्लैंकटान) उपलब्ध है। तालाब में प्लैंकटान की अच्छी मात्रा करने के उद्देश्य से यह आवश्यक  है कि गोबर की खाद के साथ सुपरफास्फेट 300 किलोग्राम तथा यूरिया 180 किलोग्राम प्रतिवर्ष प्रति हेक्टयेर के मान से डाली जाये। अतः साल भर के लिए निर्धारित मात्रा (10000 किलो गोबर खाद, 300 किलो सुपरफास्फेट तथा 180 किलो यूरिया) की 10 मासिक किश्तों में बराबर-बराबर डालना चाहिए। इस प्रकार प्रतिमाह 1000 किला गोबर खाद, 30 किलो सुपर फास्फेट तथा 18 किलो यूरिया का प्रयोग तालाब में करने पर प्रचुर मात्रा में प्लैंकटान की उत्पत्ति होती है।

मत्स्य बीज संचयन

सामान्यतः तालाब में 10000 फ्राई अथवा 5000 फिंगरलिंग प्रति हैक्टर की दर से संचय करना चाहिए। यह अनुभव किया गया है कि इससे कम मात्रा में संचय से पानी में उपलब्ध भोजन का पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता तथा अधिक संचय से सभी मछलियों के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध नहीं होता। तालाब में उपलब्ध भोजन के समुचित उपयोग हेतु कतला सतह पर,रोहू मध्य में तथा म्रिगल मछली तालाब के तल में उपलब्ध भोजन ग्रहण करती है। इस प्रकार इन तीनों प्रजातियों के मछली बीज संचयन से तालाब के पानी के स्तर पर उपलब्ध भोजन का समुचित रूप से उपयोग होता है तथा इससे अधिकाधिक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।
पालने योग्य देशी प्रमुख सफर मछलियों (कतला, रोहू, म्रिगल ) के अलावा कुछ विदेशी प्रजाति की मछलियां (ग्रास कार्प, सिल्वर कार्प कामन कार्प) भी आजकल बहुतायत में संचय की जाने लगी है। अतः देशी व विदेशी प्रजातियों की मछलियों का बीज मिश्रित मछलीपालन अंतर्गत संचय किया जा सकता है। विदेशी प्रजाति की ये मछलियां देशी प्रमुख सफर मछलियों से कोई  प्रतिस्पर्धा नहीं करती है। सिल्वर कार्प मछली कतला के समान जल के ऊपरी सतह से, ग्रास कार्प रोहू की तरह स्तम्भ से तथा काँमन कार्प मृगल की तरह तालाब के तल से भाजे न ग्रहण करती है। अतः इस समस्त छः प्रजातियोंके मत्स्य बीज संचयन होने पर कतला, सिल्वरकार्प, रोहू, ग्रासकार्प, म्रिगल तथा कामन कार्प को 20:20:15:15:15:15 के अनुपात में संचयन किया जाना चाहिए। सामान्यतः मछलीबीज पाँलीथीन पैकट में पानी भरकर तथा आँक्सीजन हवा डालकर पैक की जाती है।तालाब मेंमत्स्यबीज छोड़ने के पूर्व उक्त पैकेट को थोड़ी देर के लिए तालाब के पानी में रखना चाहिए। तदुपरांत तालाब का कुछ पानी पैकेट के अन्दर प्रवेद्गा कराकर समतापन (एक्लिमेटाइजेद्गान) हेतु वातावरण तैयार कर लेनी चाहिए और तब पैकेट के  छलीबीज को धीरे-धीरे तालाब के पानी में निकलने देना चाहिए। इससे मछली बीज की उत्तर जीविता बढ़ाने में मदद मिलती है।

ऊपरी आहार

मछली बीज संचय के उपरात यदि तालाब में मछली का भोजन कम है या मछली की बाढ़ कम है तो चांवल की भूसी (कनकी मिश्रित राईस पालिस) एवं सरसो या मूगं फली की खली लगभग 1800 से 2700 किलोग्राम प्रति हेक्टर प्रतिवर्ष के मान से देना चाहिए।
इसे प्रतिदिन एक निश्चित समय पर डालना चाहिए जिससे मछली उसे खाने का समय बांध लेती है एवं आहार व्यर्थ नहीं जाता है। उचित होगा कि खाद्य पदार्थ बारे को में भरकर डण्डों के सहारे तालाब में कई जगह बांध दें तथा बारे में में बारीक-बारीक छेद कर दें।यह भी ध्यान रखना आवश्यक  है कि बोरे का अधिकांश भाग पानी के अन्दर डुबा रहे तथा कुछ भाग पानी के ऊपर रहे।
सामान्य परिस्थिति मेंप्रचलित पुराने तरीकों से मछलीपालन करने में जहां 500-600 किलो प्रति हेक्टेयरप्रतिवर्ष का उत्पादन प्राप्त होता है, वहीं आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति से मछलीपालन करने से 3000 से 5000 किलो/हेक्टर /वर्ष मत्स्य उत्पादन कर सकते हैं। आंध्रप्रदेश में इसी पद्धति से मछलीपालन कर 7000 किलो/हेक्टर/वर्ष तक उत्पादन लिया जा रहा है।
मछली पालकों को प्रतिमाह जाल चलाकर संचित मछलियों की वृद्धि का निरीक्षण करते रहना चाहिए, जिससे मछलियों कोदिए जाने वाले परिपूरक आहार की मात्रा निर्धारित करने में आसानी होगी तथा संचित मछलियों की वृद्धि दर ज्ञात हो सकेगी। यदि कोई बीमारी दिखे तो फौरन उपचार करना चाहिए।
 मछलियों की देखरेख और आहार प्रबंधन
स्त्रोत: पोर्टल विषय सामग्री टीम ।

Wednesday 18 January 2017

तालाबों के जलक्षेत्रों की मापी की सरल विधि

  1. परिचय
  2. यदि किसी तालाब की लम्बाई 100 फीट हैं एवं चौड़ाई 50 फीट है तो उसका क्षेत्रफल क्या होगा ?
  3. तालाब के क्षेत्रफल की गणना के लिए सुलभ तालिका

परिचय

जलकरों के क्षेत्रफल की इकाई हेक्टेयर/ एकड़/ डिसमिल में होता है जिसे फीट/ मीटर में लम्बाई एवं चौड़ाई नाप कर क्षेत्रफल निकाला जाता है | सुविधा के लिए फीट से भूमि मापने की सरल विधि उदहारण के साथ दर्शायी गयी : -  
435.60 वर्ग फीट    = 1 डिसमिल
100 डिसमिल             = 1 एकड़          = 43560.00 वर्ग फीट
2.5 एकड़          =  1 हेक्टेयर             = 108900.00 वर्ग फीट
10,000 वर्ग मी.     = 1 हेक्टेयर
0.4 हे.            = 1 एकड़
400 वर्ग मी.       = 1 एकड़
उदहारण

यदि किसी तालाब की लम्बाई 100 फीट हैं एवं चौड़ाई 50 फीट है तो उसका क्षेत्रफल क्या होगा ?

क्षेत्रफल = लम्बाई x चौड़ाई
= 100 x 50
= 5000 वर्गफीट
चूँकि 435.60 वर्गफीट = 1 डिसमिल
अत: 5000 वर्गफीट = 5000/435.6
= 11.47 डि. अर्थात 11.50 डि. लगभग

तालाब के क्षेत्रफल की गणना के लिए सुलभ तालिका

क्षेत्रफल वर्ग फीट में        क्षेत्रफल डिसमिल में
435.60                        1
2178.00                       5
4356.00                       10
10890.00                      25

स्त्रोत: मत्स्य निदेशालय, राँची, झारखण्ड सरकार

मत्स्य पालन एक व्यवसाय

  1. परिचय
  2. झारखण्ड एवं बिहार में मत्स्य संसाधन
  3. झारखण्ड एवं बिहार राज्य में मत्स्य उत्पादन की अवस्था
  4. झारखण्ड एवं बिहार में मत्स्य उत्पादन में कम होने के अनके कारण है जैसे कि –
  5. झारखण्ड एवं बिहार राज्य में मत्स्य विकास की संभावनाएं
  6. उपसंहार
  7. मत्स्य पालन में ध्यान देने वाली छोटी-छोटी बातें

परिचय

झारखण्ड राज्य जो कि एक पठारी प्रदेश है कि अर्थव्यवस्था मिली-जुली है, जिसमें उधोग के साथ –साथ कृषि का भी विशेष योगदान है | वैसे तो झारखण्ड को अनके प्रकार के उधोग तथा खनिजों के लिए जाना जाता है, लेकिन आज भी इस प्रदेश की कुल 3 करोड़ 29 लाख आबादी का 78% भाग गाँवों में वास करती है, जिनकी आजीविका, कृषि बागवानी तथा पशुपालन पर आधारित है | इस प्रदेश में बागवानी एवं पशुपालन का विशेष स्थान है | तुलनात्मक दृष्टिकोण से मत्स्य पालन ताकि मात्सियकी के लिए यधपि प्रचुर संसाधन है , लेकिन उत्पादन का स्तर अत्यंत ही निम्न है जिसका समाधान आवश्यक है | आवश्यकता तो इस बात की है कि मात्सियकी को भी पशुपालन के तर्ज पर प्रमुखता दी जानी चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें परचुर संभावनाएं है एवं गरीबी उन्मूलन तथा ग्रामीण विकास में इसका विशेष योगदान हो सकता है | विस्तृत औधोगिकीकरण के बावजूद आज भी लगभग 57% लोग गरीबी रखे के नीचे हैं, जो अपने आप में एक विरोधाभाष  है साथ ही इस बात की ओर इंगित करती है कि जब तक गाँवों, जिसकी संख्या 32260 है, कि दशा नहीं सुधारी जायगी समुचित विकास की परिकल्पना संभव नहीं है | अत: कृषि जिसमें बागवानी, पशुपालन तथा मात्सियकी भी सम्मिलित है, के विकास पर विशेष जोर देने की अविलम्ब आवश्यकता है |

झारखण्ड में मत्स्य संसाधन

झारखण्ड राज्य में प्रचुर जल संसाधन उपलब्ध है, यथा 16 प्रमुख नदियाँ (दामोदर, बराकर, स्वर्णरेखा, कोयल, कारो आदि), अनेकों जलाशय, जल-प्रपात, झील, पोखर, तथा तालाब आदि है |

झारखण्ड राज्य में मत्स्य उत्पादन की अवस्था

वर्तमान में झारखण्ड राज्य में मत्स्य उत्पादकता की दर अत्यंत ही दयनीय है, जिसके प्रमुख कारण हैं, उपलब्ध तकनीकों का व्यवहार न करना | यानी अभी तक मत्स्य पालन तथा मत्स्य प्रग्रहण में वैज्ञानिक पद्धतियों का सर्वथा अभाव है | उपलब्ध आंकड़ों में पता चलता है कि वर्तमान में तालाब तथा पोखर की औसत मत्स्य उत्पादकता 1400 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से भी कम है, जबकि देश की औसत उत्पादकता 2150 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है | इसी प्रकार जलाशय जो झारखण्ड मात्सियकी को उत्कृष्टता प्रदान कर सकते हैं , में भी मत्स्य उत्पादकता की दर 25-30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है जो अत्यंत ही कम है |

झारखण्ड में मत्स्य उत्पादन में कम होने के अनके कारण है जैसे कि –

-    तालाब तथा पोखरों की बदहाली एवं उनसे खर-पतवार का अत्यधिक जमाव |
-    पठारी क्षेत्र एवं लेटेराईट मिटटी की अधिकता |
-    आधुनिक मत्स्य पालन पद्धतियों का प्रयोग न करना |
-    झारखण्ड राज्य के अनके भागों की मिटटी की निम्न गुणवता का होना |
-    मत्स्य कृषकों में जागरूकता एवं जानकारी का अभाव तथा मत्स्य पालन हेतु व्यावसायिक दृष्टिकोण नहीं आदि |

झारखण्ड राज्य में मत्स्य विकास की संभावनाएं

झारखण्ड राज्य में मत्स्य विकास की प्रचुर संभावनाएं हैं | परन्तु इसके लिए विभाग तथा कृषकों की ओर से समेकित प्रयास की आवश्यकता है  |
इस प्रदेश की मात्स्यिकी विकास हेतु निम्न बातों की ओर सूचित ध्यान देने की आवश्यकता है :
-    मत्स्य पालन हेतु आधुनिक तकनीक तथा पद्धतियों का समुचित प्रयोग |
-    अधिक से अधिक ग्रामीण जनता को मत्स्य पालन हेतु प्रेरित करने की आवश्यकता है |
-    मत्स्य पालने हेतु सूचित ऋण की व्यवस्था |
-    अधिक से अधिक मत्स्य बीज का उत्पादन |
-    मत्स्य पालन के साथ कृषि के अन्य आयामों यथा बागवानी, पशुपालन आदि का समावेश |
-    राज्य में उपलब्ध जलाशयों में मत्स्य उत्पादकता को बढाने की आवश्यकता |
-    जलाशयों का समुचित प्रबंधन हेतु मत्स्य पालन सहकारिता समितियों का गठन |
-    जलाशयों में उचित मात्रा तथा उत्तम किस्म के मत्स्य बीज का प्रत्यारोपण |

उपसंहार

झारखण्ड एवं औधोगिक राज्य होने के बावजूद कृषि विकास, जिसमें मात्स्यिकी भी सम्मिलित है, कि प्रचुर संभावनाएं है | आवश्यकता है इसे वैज्ञानिक पद्धति द्वारा करने की | आशा की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षों में झारखण्ड की पहचान मात्र उधोगों से नहीं, अपितु कृषि, बागवानी, पशुपालन तथा मत्स्य पालन में भी होगी एवं ग्रामीण जनता की आर्थिक स्थिति में उल्लेखनीय सुधार होगा | प्रदेश की मात्स्यिकी को सुद्रढ़ता प्रदान करने के लिए तीन प्रकार के प्रयास करने होंगे –
(1)    तालाब तथा पोखरों का जीर्णोधारकर उत्पादन में वृधि |
(2)    जलाशय मात्स्यिकी पर विशेष जोर एवं उनमें मत्स्य पालन-सह-मत्स्य प्रग्रहण द्वारा उत्पादन में वृधि |
(3)    जल क्षेत्र के समुचित विकास तथा प्रति वर्ग क्षेत्र से अधिक लाभ लेने हेतु मिश्रित खेती जिसमें मछली के साथ बागवानी, पशुपालन, बत्तख तथा कुक्कुट आदि का समावेश करने की आवश्यकता |
मछली के साथ कृषि के अन्य आयामों के समावेश में स्थान विशेष की जलवायु एवं आर्थिक रूप से फल देने वाले व्यवसायों का समुचित चयन को प्राथमिकता देनी होगी | उदाहरण के तौर पर दुमका, देवघर, आदि क्षेत्रों में बकरी पालन आम है | अत: इसे मत्स्य पालन, के साथ जोड़ सकते हैं | उसी प्रकार सिंहभूम क्षेत्र में बत्तख तथा मुर्गी पालन आदिकाल से होता आया है | अत: इन्हें मत्स्य पालन के साथ जोड़कर अधिक लाभ लिया जा सकता है | राँची, लोहरदगा, गुमला, सिमडेगा तथा हजारीबाग जिलों की जलवायु बागवानी जिसमें औषधीय पौधे भी आते हैं के लिए उपयुक्त है | अत: इस स्थानों में मत्स्य पालन के साथ इनका समावेश किया जा सकता है |
प्रदेश में छोटे, मध्यम तथा बड़े जलाशयों का विशाल भंडार है, लेकिन वर्तमान में इससे मत्स्य उत्पादन बहुत ही कम है | ये जल संसाधन प्रदेश के मत्स्य उत्पादन को एक नई उंचाई दे सकते हैं साथ ही इनके साथ बागवानी (विशेषकर बांस की खेती तथा पशु चारा की खेती) एवं पशुपालन को जोड़ कर अत्यधिक लाभ लिया जा सकता है | इन जल संसाधनों से पिंजड़े (केज) तथा घेरे (पेन) द्वारा मत्स्य तथा झींगा का उत्पादन लिया जा सकता है |

मत्स्य पालन में ध्यान देने वाली छोटी-छोटी बातें

  1. मत्स्य बीज संचयन के कम से कम दस दिन पूर्व तालाब में जाल चलाने के बाद 200 कि.ग्रा. प्रति एकड़ की दर से बुझा हुआ चूना प्रयोग करें |
  2. तालाब में मत्स्य बीज छोड़ने के पहले मत्स्य बीज के पोलीथिन पैक या हांडी को तालाब के पानी में 10 मिनट रहने दें ताकि मत्स्य बीज वाले पानी और तालाब के पानी का तापमान एक हो जाये | उसके उपरान्त ही मत्स्य बीज वाले पानी और तालाब के पानी में जाने दें |
  3. तालाब में जानवरों को प्रवेश करने से तालाब के तल का पानी एवं सतह का पानी मिलता रहता है जो मत्स्य पालन के लिए लाभकारी है |
  4. तालाब के आर-पार खड़े होकर तालाब के पानी पर रस्सी पीटने से/ तालाब में जाल चलाने से/ लोगों के तैरने से तालाब के पानी में ऑक्सीजन ज्यादा घुलता है तथा मछली का अच्छा व्यायाम होता है जो मछली की वृधि के लिए लाभदायक है |
  5. दिसम्बर माह के मध्य में तालाब में चूना का एक बार फिर से प्रयोग करने से मछलियों में जाड़े में होने वाली लाल चकते की बीमारी से बचा जा सकता है |
  6. तालाब में जाल डालने के पहले जाल को नमक के पानी में अच्छी तरह धो लें इससे मछली में संक्रमण वाली बीमारी के प्रकोप नहीं होगा |
  7. तालाब में मछली की शिकार माही करते समय पकड़ी गई मछलियों की बिक्री हेतु ले जाने तक हप्पा में या जाल में समेट कर तालाब में जिन्दा रखने की कोशीश करें | इससे मछली बाजार में ताजी पहुंचेगी और उसका अच्छा मूल्य प्राप्त होगा |
  8. सुबह में तालाब के चारों ओर घुमे | तालाब के किनारे मिटटी में बने पद चिन्हों या यहाँ-वहाँ गिरे मछली या घास फूस को आपको तालाब में मछली की चोरी की जानकारी मिल सकती है | साथ ही साथ मछली की सुबह गतिविधियों / तैरने की स्थिति में भी मछली के स्वाथ्य की जानकारी प्राप्त होती है |
  9. तालाब का पानी यदि गहरा हरा हो जाये या उससे किसी तरह की दुर्गन्ध आती महसूस हो तो अविलम्ब तालाब में चूना का प्रयोग करें, यदि सम्भव हो तो तालाब में बाहर से ताजा पानी डालें तथा किसी तरह का भोजन या खाद तालाब में डालना बंद कर दें |
  10. यदि सदाबहार तालाब है तो प्रयत्न करें कि आधे किलो से ऊपर की मछली ही निकाली जाय |
  11. यदि आस-पास मौसमी तालाब है तो उसमें छोटे बच्चे 100-150 ग्राम का क्रय कर अपने तालाब में संचयन करें |
  12. मत्स्यपालन के कार्यकलाप के लिए एक डायरी संघारित करे जिससे इस पर होने वाले खर्च तथा आय एवं मछली के उत्पादन का व्योरा लिखते रहे जो भविष्य में काम आएगा |
  13. आपात स्थिति में मत्स्य विशेषज्ञ से संपर्क करे |

स्त्रोत: मत्स्य निदेशालय, राँची, झारखण्ड सरकार