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Thursday 19 March 2015

भूमि अधिग्रहण कानून (Land Acquisition Act )

आदरणीय दोस्तों 
इस बार मैं भूमि अधिग्रहण कानून के ऊपर लेख लाया हूँ | यह लेख परम सम्मानीय भाई राजीव दीक्षित जी के व्याख्यानों पर आधारित है | एक बात मैं स्पष्ट कर दूँ कि यहाँ इस लेख में जो आंकड़े दिए गए हैं वो वर्ष 2009 तक के हैं | और इस लेख को पढने के पहले इस सूचि को पढ़ लीजिये तब जा के आपको बात ज्यादा बेहतर तरीके से समझ में आएगी, हमारे यहाँ जमीन की पैमाइश ऐसे ही की जाती है और 1260 sq . feet जो दिया गया है वो भारत के ज्यादातर राज्यों में एक ही है, किसी किसी राज्य में थोडा ज्यादा है |
1260 Sq. Feet = एक कट्ठा ,20 कट्ठा = एक बीघा ,ढाई बीघा = एक एकड़ और 5 एकड़ = एक हेक्टेयर 
(ये पैमाना अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है)                     
भूमि अधिग्रहण कानून का इतिहास 
भारत में सबसे पहले भूमि अधिग्रहण कानून अंग्रेजों ने लाया था 1839 में लेकिन इसे लागू किया 1852 में और वो भी बम्बई प्रेसिडेसी में | बम्बई प्रेसिडेंसी जो थी उसमे शामिल था आज का महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, गोवा और मध्य प्रदेश का वो इलाका जो नागपुर से लगा हुआ है | भारत की पहली क्रांति जो 1857 में हुई थी उस समय  भारत से सारे अंग्रेज चले गए थे और जब इस देश के कुछ गद्दार राजाओं के बुलावे पर वापस आये तो उन्होंने इस कानून को पुरे देश में लागू कर दिया | फिर 1870 में इसमें एक संशोधन कर दिया गया और वो संसोधन ये था कि "जमीन के अधिग्रहण का नोटिस एक बार अंग्रेज सरकार ने जारी कर दिया तो उस नोटिस को भारत के किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती और कोई भी अदालत इस मामले की सुनवाई नहीं कर सकता", मतलब अंग्रेज सरकार की जो नीति है वो अंतिम रहेगी, उसमे कोई फेरबदल नहीं होगा, कोई किसान अपनी जमीन छिनने की शिकायत किसी से नहीं कर सकता और इसी संसोधन में ये भी हुआ कि जमीन का मुआवजा सरकार तय करेगी और ये संसोधन सारे राज्यों में लागू हुआ | आखरी बार इसमें जो संसोधन हुआ वो 1894 में हुआ और वही संसोधित कानून आज भी इस देश में लागू हैं आजादी के 64 साल बाद भी | इस कानून में व्यवस्था क्या है ? व्यवस्था ये है कि केंद्र की सरकार हो, राज्य की सरकार हो, नगरपालिका की सरकार हो या जिले की सरकार हो, हर सरकार को, इस कानून के आधार पर किसी की जमीन को लेने का अधिकार है | 

शहीदे आजम भगत सिंह को जब फाँसी की सजा हुई थी और उनको जेल में रखा गया था उस समय उन्होंने जितने इंटरव्यू दिए या पत्रकारों से बातचीत की हर बार वो कहा करते थे कि अंग्रेजों के सबसे ज्यादा दमनकारी कोई कानून भारत में है तो उसमे से एक है "भूमि अधिग्रहण कानून" और दूसरा है "पुलिस का कानून (इंडियन पुलिस एक्ट)" और भगत सिंह का कहना था कि आजादी के बाद ये कानून ख़त्म होना चाहिए, ऐसे ही चंद्रशेखर आजाद ने भी इस कानून के खिलाफ पर्चे बटवाए थे | ऐसे एक नहीं, दो नहीं, हजारों, लाखों क्रांतिकारियों का ये मानना था कि ये भूमि अधिग्रहण का कानून सबसे दमनकारी कानून है और अंग्रेजों के बाद इस कानून को समाप्त हो जाना चाहिए | हमारे सारे शहीदों का एक ही सपना था चाहे वो हिंसा वाले शहीद हो या अहिंसा वाले शहीद हो कि ये भूमि अधिग्रहण का जो कानून है वो अत्याचारी है, बहुत ज्यादा अन्याय करने वाला है, शोषण करने वाला है, इसलिए इस कानून को तो रद्द होना ही चाहिए, ख़त्म होना ही चाहिए | अब 15 अगस्त 1947 को जब ये देश आजाद हुआ तो ये अंग्रेजों का अत्याचारी कानून ख़त्म हो जाना चाहिए था लेकिन ये बहुत दुःख और दुर्भाग्य से मुझे कहना पड़ता है कि ये कानून आज आजादी के 64 साल बाद भी इस देश में चल रहा है और इस कानून के आधार पर किसानों से जमीने आज भी छिनी जा रही है और इस कानून के आधार पर आज भी हमारे किसानों को भूमिहीन किया जा रहा है | मुझे बहुत दुःख और दुर्भाग्य से ये कहना पड रहा है कि जिस तरह से अंग्रेजों की सरकार किसानों से जमीन छिना करती थी ठीक वैसे ही आजाद भारत की सरकार किसानों से जमीन छिना करती है | इसी कानून का सेक्सन 4 है इसी कानून का पैरा 1 है, उसके आधार पर अंग्रेज जमीन छिनने के लिए नोटिस जारी करते थे वही सेक्सन 4 और पैरा 1 का इस्तेमाल कर के आज भारत सरकार भी नोटिस जारी करती है और उसी तरीके से नोटिस आता है जिलाधिकारी के माध्यम से और जमीन छिनने के लिए आदेश थमा दिया जाता है और जिसका जमीन है उसके हाँ या ना का कोई प्रश्न ही नहीं है | और जमीन का भाव सरकार वैसे ही तय करती है जैसे अंग्रेज किया करते थे | कोर्ट इसमें हस्तक्षेप न करे इसके लिए इसमें चालाकी ये की गयी है कि इस भूमि अधिग्रहण कानून को संविधान के 9th Schedule में डाल दिया गया है जिसमे कोई petition भी नहीं दी जा सकती | भूमि अधिग्रहण का पूरा मामला हमारे संविधान के 9th Schedule में है और संविधान के 9th Schedule बारे में स्पष्ट है कि कोई भी व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में केस नहीं कर सकता | 
जमीनों का बंदरबांट
अब देखिये ये अधिग्रहित जमीन किसके पास कितनी है | भारत में एक रेल मंत्रालय है, उसके देश भर में रेलवे स्टेशन है, यार्ड है जहाँ डिब्बे खड़े रहते हैं, इसके अलावा रेल के चलने के लिए रेलवे लाइन हैं | करीब 70 हजार डिब्बे यार्ड में खड़ा करने के लिए जो जगह चाहिए, 6909 रेलवे स्टेशन बनाने के लिए जो जमीन ली गयी है, और 64 हजार किलोमीटर रेलवे लाइन बिछाने के लिए जो जमीन किसानों से ली गयी है या छिनी गयी है इस कानून के आधार पर वो बेशुमार है, आप कल्पना नहीं कर सकते है, आपके मन में ये सपने में भी नहीं आ सकता है कि इतनी जमीन ली जा सकती है | जो जमीन हमारी सरकार ने किसानों से छिनी है इस रेलवे विभाग के लिए वो 21 लाख 50 हज़ार एकड़ जमीन है | हमारे रेल मंत्रालय के दस्तावेजों में से निकले गए आंकड़े हैं ये | 21 लाख 50 हजार एकड़ जमीन रेल मंत्रालय ने इस कानून के तहत हमारे किसानों से छीन कर अपने कब्जे में ली है, अपनी सम्पति बनाई है जिस पर 64 हजार किलोमीटर रेलवे लाइन हैं,70 हजार डिब्बे यार्ड में खड़े होते हैं और 6909 रेलवे स्टेशन खड़े हैं | अब आप तुरत ये सवाल करेंगे कि रेल मंत्रालय ने ये जमीन ली है वो लोगों के हित के लिए है | आपकी बात ठीक है कि लोगों के हित के लिए ये जमीन ली गयी है लेकिन लोगों के हित में उन किसानों का हित भी तो शामिल है जिनसे ये जमीन ली गयी हैं | आप दस्तावेज देखेंगे तो पाएंगे कि आजादी के बाद 1947-48 में जो जमीन किसानों से ली गयी है उसकी कीमत है एक रुपया बीघा, दो रूपये बीघा, ढाई रूपये बीघा, तीन रूपये बीघा और आज उन जमीनों की कीमत है एक करोड़ रूपये बीघा, दो करोड़ रूपये बीघा | किसानों से एक,दो,तीन रूपये बीघा ली गयी जमीन करोड़ों रूपये बीघा है तो जिन किसानों से ये जमीन ली गयी उनके साथ कितना अन्याय हुआ, इसकी कल्पना आप कर सकते हैं | अब रेलवे विभाग इस जमीन का इस्तेमाल कर के एक साल में 93 हजार 159 करोड़ रुपया कमाता है | आप सोचिये कि किसानों से जो 21 लाख 50 हजार एकड़ जमीन ली गयी भूमि अधिग्रहण कानून के आधार पर और उस जमीन का इस्तेमाल कर के रेल विभाग एक साल में 93 हजार 159 करोड़ रुपया कमाता है तो क्या रेल मंत्रालय का ये दायित्व नहीं बनता, ये नैतिक कर्त्तव्य नहीं बनता कि इस कमाए हुए धन का कुछ हिस्सा उन किसानों को हर साल मिलना चाहिए जिनसे ये जमीने छिनी गयी हैं और जिनकी ये जमीने कौड़ी के भाव में ली गयी हैं | मैं मानता हूँ कि किसानों की बराबर की हिस्सेदारी होनी चाहिए इस फायदे में, इस लाभ के धंधे में | रेलवे विभाग इस देश में कोई घाटा देने वाला विभाग नहीं है | उसका हर साल का नेट प्रोफिट 19 हजार 320 करोड़ रुपया है | अगर शुद्ध आमदनी में से ही 10 या 15 प्रतिशत हिस्सा उन किसानों के लिए निकल दिया जाये तो उन करोड़ों किसानों के जिंदगी का आधार तय हो जायेगा जिन्होंने आज से 50 -60 साल पहले कौड़ी के भाव में अपनी जमीन गवां दी थी रेलवे के हाथों में |         इसी तरह सरकार का एक दूसरा महत्वपूर्ण विभाग है जिसने किसानों से जमीन ली है भूमि अधिग्रहण के नाम पर, उस विभाग का नाम है भूतल परिवहन मंत्रालय | ये  भूतल परिवहन परिवहन मंत्रालय रोड और यातायात का काम देखती है | भारत में दो तरह के रोड होते हैं एक नेशनल हाइवे और दूसरा स्टेट हाइवे | आजादी के बाद इस देश में 70 हजार 5 सौ अड़तालीस किलोमीटर नेशनल हाइवे बनाया गया है और इस 70 हजार 5 सौ 48 किलोमीटर लम्बे सड़क के लिए किसानों से 17 लाख एकड़ जमीन छिनी गयी और इस जमीन पर सड़क जो बनती है उस पर ठेकेदार किलोमीटर के हिसाब से पैसा वसूलते हैं, लेकिन जिन किसानों ने हजारों एकड़ जमीन अपनी दे दी है उन्हें उस कमाई में से एक पैसा भी नहीं दिया जाता, इतना बड़ा अत्याचार इस देश में कैसे बर्दास्त किया जा सकता है | आप जानते हैं कि इस देश के नेशनल हाइवे पर जब हम चलते हैं तो हर पचास किलोमीटर पर टोल टैक्स हमको भरना पड़ता है और गाड़ी खरीदने के समय पूरी जिंदगी भर का रोड टैक्स हमको भरना पड़ता है | सरकार उस जमीन पर रोड बनवाकर टैक्स का पैसा तो अपने खाते में जमा करा लेती है लेकिन उन किसानों को टैक्स के पैसे में से कुछ नहीं दिया जाता जिनसे ये 17 लाख एकड़ जमीन छिनी गयी हैं भूमि अधिग्रहण कानून के हिसाब से और इन सड़कों पर कारें, ट्रक, बस आदि चलते हैं, देश की आमदनी उससे होती है और ये आमदनी हमारे GDP में जुड़ जाती है लेकिन उन किसानों का क्या जिन्होंने अपने खून-पसीने की कमाई की 17 लाख एकड़ जमीन एक झटके में हमारी सरकार को दे दी भूमि अधिग्रहण कानून के आधार पर, देश के लोगों का भला हों इस आधार पर | किसानों को कुछ तो नहीं मिल रहा है | इसी तरह से स्टेट हाइवे है, आप जानते हैं कि भारत में 29 राज्य हैं और एक एक राज्य में 10 से 12 हजार किलोमीटर का स्टेट हाइवे है | उत्तर प्रदेश में 14 हजार किलोमीटर, मध्य प्रदेश में 12 हजार किलोमीटर है और ऐसे ही हर राज्य में है और कुल मिलकर एक लाख किलोमीटर से ज्यादा स्टेट हाइवे है और इसमें किसानों की लाखों एकड़ जमीन जा चुकी हैं | 
ऐसे ही स्कूल, कॉलेज बनवाने के लिए सरकार द्वारा जमीने ली गयी हैं | हमारे भारत में 13 लाख प्राइमरी, मिडिल और इंटर स्तर के स्कूल हैं और करीब 14 हजार डिग्री स्तर के कॉलेज है और 450 विश्वविद्यालय हैं | इन स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय में जो कुल जमीन गयी हैं वो करीब 13 लाख एकड़ जमीन है, ये जमीन भी किसानों ने शिक्षा के नाम पर केंद्र सरकार को दी है, राज्य सरकारों को दी है | आप जानते हैं कि कॉलेज बनाने के नाम पर कौड़ी के भाव में जमीन मिलती है फिर वो जमीन का उपयोग कर के बिल्डिंग बनायी जाती है, फिर donation ले के नामांकन दी जाती हैं विद्यार्थियों को, ये donation लाखों करोड़ों में होती है | कोई भी कॉलेज घाटे में नहीं चलता, सब के सब फायदे में चलते हैं, लेकिन उन किसानों को कुछ भी नहीं मिलता है जिन्होंने एक झटके में वो जमीन कॉलेज बनाने के लिए दे दी है | 
हमारे देश में हॉस्पिटल किसानों के जमीन पर बनाई गयी है | हमारे देश की सरकार ने 15 हजार 3 सौ 93 हॉस्पिटल इस देश में तैयार किये गए हैं और इन हॉस्पिटल को बनाने के लिए कुल लगभग 8 लाख 75 हजार एकड़ जमीने किसानों से ली गयी हैं | इन जमीनों पर जो हॉस्पिटल खड़े हुए हैं उन हॉस्पिटल को बनाने के समय सरकार का हॉस्पिटल बनाने वालों से समझौता हुआ है और उसमे ये लिखा गया है कि गरीब किसानों के लिए इन हॉस्पिटल में निःशुल्क इलाज मिलेगा तभी जमीन कम कीमत पर मिलेगी लेकिन कोई हॉस्पिटल गरीब किसानों को निःशुल्क इलाज नहीं देता है | इतने महंगे इलाज हैं कि हॉस्पिटल बनाने के लिए जिस किसान ने जमीन दे दी, उसी किसान को अपने घर वालों का इलाज कराने के लिए उस हॉस्पिटल में जब जाना पड़ता है तो जमीन बेंच कर जो पैसे आये हैं वो सारे पैसे खर्च करने पड़ते हैं तब जाकर उसके परिजन का इलाज होता है | मतलब पैसे वापस उसी हॉस्पिटल में चला जाता है | इसलिए किसान वहीं के वहीं रहते हैं | उनका शोषण वैसे के वैसे ही होता है | तो हॉस्पिटल के लिए ली गयी 8 लाख 75 हजार एकड़ जमीन हैं | इसी तरह भारत में भारतीय और विदेशी कंपनियों ने उद्योग स्थापित किये हैं और उन उद्योगों के लिए 7 लाख एकड़ जमीन ली गयी है और इसी तरह भारत देश में भारत सरकार का एक विभाग है दूरसंचार मंत्रालय | इसके भवन सारे देश में बने हुए हैं और उसके लिए 1 लाख 55 हजार एकड़ जमीन इसने किसानों से ले रखी है | इसी तरह भारत सरकार के 76 मंत्रालय हैं उन 76 मंत्रालयों और राज्य सरकारों के मंत्रालय और म्युनिसिपल कारपोरेशन के काम करने वाले विभाग हैं, तीनों स्तर पर लाखो एकड़ जमीन तो ली जा चुकी हैं अब तक सरकार के द्वारा और करीब 25-30 लाख एकड़ जमीन ली जा चुकी है कंपनियों और निजी व्यक्तियों के द्वारा | ये सारे जमीन किसानों के हाथ से निकल कर निजी संपत्ति बन चुकी है सरकार और कंपनियों की | और किसान वहीं गरीब के गरीब हैं, वो आत्महत्या कर रहे हैं, भूखों मर रहे हैं और उनकी जमीनों पर लोग सोना पैदा कर रहे हैं | ये अत्याचार ज्यादा दिनों तक अब बर्दाश्त नहीं किया जा सकता,  आजादी के 64 साल तक तो बर्दाश्त हो गया अब क्षमता नहीं है |  कई बार मजाक होता है किसानों के साथ ये कि किसानों के जमीन का भाव तय किया जाता है एक रुपया स्क्वायर फीट, पचास पैसे स्क्वायर फीट, पंद्रह पैसे स्क्वायर फीट | आपको एक सच्ची घटना सुनाता हूँ | आज से लगभग बीस साल पहले गुजरात के गांधीधाम के पास एक द्वीप सतसैदा वेट को वहां की तत्कालीन सरकार ने एक अमरीकी कंपनी 'कारगिल' को पंद्रह पैसे स्क्वायर फीट के दर से बेंच दिया था नमक बनाने के लिए | वो द्वीप 70 हजार एकड़ का था | जनहित याचिका के अंतर्गत जब ये मामला गुजरात उच्च न्यायलय में पहुंचा और गुजरात सरकार से जब ये पूछा गया तो उसने इस बात को स्वीकार किया और कहा कि ये जमीन भारत के नागरिकों के हित को ध्यान में रखकर विदेशी कंपनी को बेचीं गयी है| सरकार का तर्क था कि ये कारगिल कंपनी जो नमक बनाएगी वो भारत के आम नागरिकों के आवश्यकता को पूरा करेगी और ये समझौता देशहित में है तो दुसरे पक्ष ने भी तर्क दिया कि इसमें ऐसी कौन सी तकनीक ये लगायेंगे ? जो काम ये कारगिल कंपनी करेगी वो काम तो गांधीधाम के गरीब किसान भी कर सकते हैं और वो भी इस लोकहित का काम कर सकते हैं | कोर्ट ने जब इस मामले की जाँच कराई तब पता चला कि इसमें घोटाला हुआ है और घोटाला ये हुआ है कि इस जमीन को पंद्रह पैसे की दर से बिका तो दिखाया गया है लेकिन पिछले दरवाजे से भारी रिश्वत ली गयी थी | तो हाई कोर्ट के कारण उस समय के मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा और हाई कोर्ट ने इस समझौते को रद्द कर दिया था | समझौते को रद्द करने के पीछे कारण जो था वो भूमि अधिग्रहण का कानून नहीं था, क्योंकि भूमि अधिग्रहण के मामले में किसी कोर्ट में केस नहीं किया जा सकता और भूमि अधिग्रहण के मामले में तो ये समझौता एकदम पक्का था, ये समझौता तो रद्द हुआ था राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर क्योंकि जो जमीन इस कारगिल कंपनी को दी गयी थी वो पाकिस्तान सीमा के बिलकुल पास थी और इससे देश को खतरा था | इसके अलावा कोर्ट को ये भी बताया गया कि ये कारगिल कंपनी का मुख्य काम हथियार बनाना है | इस समझौते को रद्द करने के बाद अदालत ने एक टिपण्णी की थी  कि "ये सौदा हमने रद्द किया है देश की सुरक्षा को ध्यान में रखकर और करोडो नागरिकों के हित को ध्यान में रखकर और जल्द से जल्द इस कानून में परिवर्तन किया जाये, संसोधन किया जाये ताकि देश के जरूरतमंद नागरिकों की जमीनें सरकार बेवजह न छीन सके और करोड़ों किसानों को भूमिहीन न बनाया जा सके" | 
आज इस फैसले को आये 20 साल होने जा रहा है लेकिन भारत सरकार ने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया | आज भी इस देश में ये कानून चल रहा है और किसानों की छाती पर मुंग दल रहा है | ऐसे कई उदहारण हैं जैसे दादरी (उत्तरप्रदेश), जहाँ एक भारतीय कंपनी को ताप बिजलीघर लगाना था और 450 एकड़ जमीन की जरूरत थी और वहां की तत्कालीन सरकार ने जरूरत से सौ गुना ज्यादा जमीन किसानों से छीन लिया था, नंदीग्राम (पश्चिम बंगाल अब पश्चिम बंग) में इंडोनेशिया की कंपनी से समझौता पहले हुआ था और जमीन बाद में अधिगृहित की गयी थी जिसका विरोध वहां के किसानों ने किया था लेकिन सरकार ने न कोई मदद की और न ही कोर्ट ने लेकिन किसानों के एकता ने उनको वहां सफलता दिलाई थी, ऐसे ही सिंगुर में हुआ था | अभी हमारे देश में आर्थिक उदारीकरण के नाम पर एक योजना चल रही है जिसका नाम है Special Economic Zone (SEZ ) | इसके नाम पर हजारों लाखों एकड़ जमीन किसानों से छिनी जा रही है और अलग अलग कंपनियों को बेंची जा रही है और इन कंपनियों को ये अधिकार दिया जा रहा है कि ये कंपनियां इन खेती की जमीनों को औद्योगिक जमीन बना कर दोबारा बेंच सकें | किसानों से जब जमीन ली जाती है तो उसका भाव होता है पाँच हजार रूपये बीघा, दस हजार रूपये बीघा और वही जमीन जब ये कंपनियां दोबारा बेंचती हैं तो इस जमीन का भाव होता है एक लाख रूपये बीघा, दो लाख रूपये बीघा और कभी-कभी ये पचास लाख रूपये बीघा और कभी-कभी एक करोड़ रूपये बीघा तक भाव हो जाता है |  हमारे देश में किसानों से जमीन छिनकर कौड़ी के भाव में, कंपनियों को कम कीमत पर बेंच देना और बीच का कमीशन खा जाना, ये सरकारों ने अपना नए तरह का धंधा बना लिया है और इस कानून की आड़ में भारत के लाखों-करोडो किसानों का शोषण हो रहा है | 
दिल्ली के नजदीक एक गाँव है गुडगाँव | कुछ साल पहले वो ऐसा नहीं था, थोड़े दिन पहले यहाँ की जमीन यहाँ के किसानों से ली गयी | यहाँ के किसानों को ये लालच दिया गया कि बहुत पैसे मिल रहे हैं अपनी जमीन बेच दो | उन्होंने अपनी जमीन बेच दी और उन पैसों से कोठियां बनवा ली, गाड़ियाँ ले ली | अब वो कोठिया और गाड़ियाँ एक दुसरे के सामने खड़ी रहती हैं और एक दुसरे को मुंह चिढ़ा रही हैं | क्योंकि किसानों की आमदनी बंद हो गयी है, जब खेत थी तो खाने को अनाज मिलता था और बचे हुए अनाज को बेच के पैसा मिलता था और उससे जिंदगी आसानी से चलती थी लेकिन अब वही किसान वहां बने अपार्टमेन्ट में गार्ड का काम कर रहे हैं, माली का काम कर रहे हैं, इस्त्री करने का काम कर रहे हैं, सब्जी बेचते हैं, दूध बेचते हैं और उनके घर की महिलाएं उन कोठियों में बर्तन मांजने का काम करती हैं, झाड़ू और पोंछा लगाती हैं | जमीन जब चली जाती है तो सब कुछ चला जाता है, ना इज्जत बचती है, ना आबरू बचती है, ना पैसा बचता है, ना सम्मान बचता है, ना संसाधन बचते हैं | हमारे देश में गुडगाँव की कहानी जो है वैसे ही बहुत सारे किसानों की है जिन्होंने इस भूमि अधिग्रहण कानून के तहत जमीने या तो बेचीं या उनसे छीन ली गयी | इन सब किसानों की दुर्दशा इस देश में हो रही है | 
मैं थोड़े दिनों से इस कानून का अभ्यास कर रहा हूँ तो मुझे पता चला है कि हमारे देश का जो संसद भवन है, राष्ट्रपति भवन है वहां पर एक गाँव हुआ करता था , उस गाँव का नाम था मालचा | ये मालचा गाँव पंजाब राज्य का इलाका था बाद में हरियाणा बना तो ये गाँव हरियाणा के अधीन आ गया | इस गाँव के किसानों से अंग्रेजों ने मारपीट कर, डरा-धमका कर जमीन छिनी थी | किसान जमीन देने को तैयार नहीं थे, अंग्रेज सरकार ने जबरदस्ती किसानों से ये जमीने छिनी थी | भूमि अधिग्रहण कानून के हिसाब से नोटिस दिया और सन 1912 में मालचा गाँव के किसानों से तैंतीस (33 ) हजार बीघा जमीन छीन ली थी सरकार ने | किसानों ने जब विरोध किया तो अंग्रेज सरकार ने वैसे ही गोली चलायी जैसे आज चलती है और उस गोलीबारी में 33 किसान शहीद हुए थे, उनकी लाश पर अंग्रेज सरकार ने इस जमीन को भारत के संसद भवन और राष्ट्रपति भवन में बदल दिया और मुझे बहुत अफ़सोस है ये कहते हुए कि जिन किसानों से ये जमीने छिनी गयी उनको आज 100 साल बाद (1912 -2011) और आजादी के 64 साल बाद तक एक रूपये का मुआवजा नहीं मिल पाया है और उन किसानों के परिजन डिस्ट्रिक्ट कोर्ट से हाईकोर्ट और हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक चक्कर लगाते लगाते थक गए हैं और वो कहते हैं कि "जैसे हम अंग्रेजों के सरकार का चक्कर लगाते थे, आजादी के बाद हम हमारी सरकार के वैसे ही चक्कर लगा रहे हैं हम कैसे कहें कि देश आजाद हो गया है, कैसे कहें कि देश में स्वाधीनता आ गयी है"| वो कहते हैं कि "हमारे पुरखे लड़ रहे थे अंग्रेजी सरकार से मुआवजे के लिए और वो मर गए और अब हम लड़ रहे हैं भारत सरकार से कि हमें उचित मुआवजा मिले, हो सकता है कि हम भी मारे जाएँ और हमारी आने वाली पीढ़ी देखिये कब तक लडती है" | हमारे देश का राष्ट्रपति भवन, संसद भवन जो सबसे सम्मान का स्थान है इस देश में वो इसी भूमि अधिग्रहण कानून के अत्याचार का प्रमाण है, शोषण का प्रमाण है | किसानों से जबरदस्ती छीन कर बनाया गया भवन है ये इसलिए मुझे नहीं लगता कि इस संसद भवन या राष्ट्रपति भवन से हमारे देश के लोगों के लिए कोई सद्कार्य हो सकता है, कोई शुभ कार्य हो सकता है, कोई अच्छा कार्य हो सकता है | आजादी के 64 सालों में ऐसा कोई नमूना तो मिला नहीं मुझे | ये कहानी बहुत दर्दनाक है, बहुत लम्बी है, मैं लिखता जाऊं और आप पढ़ते जाएँ | इस अंग्रेजी भूमि अधिग्रहण कानून के इतने अत्याचार हैं इस देश के किसानों पर कि जिस पर अगर पुस्तक लिखी जाये तो 1000 -1200 पन्नों के 50 -60 खंड बन जायेंगे | पुरे देश में इतने अत्याचार और शोषण इस कानून के माध्यम से हुए हैं | 
उपाय क्या है ? 
अब आपके मन में सवाल हो रहा होगा कि उपाय क्या है ? उपाय ये है कि किसानों को जमीन का उचित मुआवजा तो मिले ही साथ ही साथ उनके जमीनों से होने वाले मुनाफे में किसानों को भी हिस्सा मिलना चाहिए, कुछ बोनस मिलना चाहिए | जिस कार्य के लिए किसानों की जमीन ली जाये उसमे किसानों का आजीवन हिस्सा होना चाहिए | जो भी मंत्रालय, जो भी विभाग, जो भी कम्पनी, जो भी कारखाना उनकी जमीन ले, तो जमीन का मुआवजा तो वो दे ही साथ ही साथ उस जमीन की मिलकियत जिंदगी भर किसानों की रहनी चाहिए और उस मिलकियत में बराबर का एक हिस्सा उनके शुद्ध मुनाफे में से किसानों को मिलनी ही चाहिए तब जाकर हमारे देश के किसानों की हैसियत और स्थिति सुधरेगी | आपको एक छोटी सी बात बताता हूँ, आप कोई कारखाना लगाते हैं या अपार्टमेन्ट बनाते हैं और उसके लिए बैंक से ऋण लेते हैं तो आप जानते हैं, बैंक का क़र्ज़ जब तक आप वापस नहीं करते बैंक आपके कारखाने में हिस्सेदार होता है | आपने बैंक से एक करोड़ का या जितना भी क़र्ज़ लिया और जब तक आप क़र्ज़ चुकाते नहीं , भले ही आप उसका ब्याज चूका रहे हो बैंक आपके उस संपत्ति में हिस्सेदार होती है | जिस किसान ने अपनी  जमीन दी है और उसके जमीन पर वो कारखाना खड़ा किया गया है तो वो किसान क्यों नहीं उस कारखाने में हिस्सेदार होना चाहिए और वही किसान नहीं उसकी आने वाली पीढियां भी इसका लाभ उठायें ये नियम होना चाहिए तभी किसानों की स्थिति सुधरेगी | ये इस देश की जनता कर सकती है क्यों कि देश की जनता में वो ताकत है, सिर्फ ताकत ही नहीं सबसे ताकतवर है लेकिन उसे कोई जानकारी तो हो |   
भारत स्वाभिमान के सैनिकों से अनुरोध 
आप तो जानते हैं कि भारत स्वाभिमान एक संकल्प कर चूका है, एक प्रतिज्ञा कर चूका है और वो संकल्प और प्रतिज्ञा ये है कि भारत स्वाभिमान नाम का हमारा अभियान इस देश में जो सबसे महत्वपूर्ण कदम उठाएगा वो ये कि इस अंग्रेजी, अत्याचारी भूमि अधिग्रहण कानून को जड़-मूल से समाप्त कराएगा ये हमारी प्रतिज्ञा है, हमारा संकल्प है | आप तो जानते हैं कि भारत स्वाभिमान का एक बड़ा संकल्प है कि अंग्रेजों के ज़माने के 34735 कानूनों को इस देश से व्यवस्था परिवर्तन के तहत हटाना है और उन कानूनों में से सबसे पहला कानून है वो यही भूमि अधिग्रहण का कानून है | हमारे देश के किसानों को सबसे ज्यादा अगर कोई मदद करेगा तो वो भारत स्वाभिमान अभियान ही करेगा जो इस अंग्रेजी, अत्याचारी, विनाशकारी, शोषण वाले कानून को रद्द कराएगा ये हमारा संकल्प है, ये हमारी प्रतिज्ञा है | आप सभी भारत स्वाभिमान के जिम्मेदार सैनिक हैं और आपसे विनम्रता पूर्वक निवेदन है कि जो भी भाई-बहन गाँव के रहने वाले हैं या गाँव के नजदीक के शहरों के रहने वाले हैं उनकी ये बड़ी जिम्मेदारी है कि वो गाँव-गाँव जाएँ और लोगों को बताना शुरू करें और उन्हें संगठित करना शुरू करें चाहे वो किसान हो, किसानों के संगठन हो या फिर किसानों के शुभेक्छू हो, सब को जोड़े और सब तक ये बातें पहुंचाएं | 

Wednesday 18 March 2015

मछलियों में रोग और उपचार


  1. रोग ग्रस्त मछलियों के लक्षण
  2. रोग के कारण
          i.     परजीवी जनित रोग
         ii.     जीवाणु जनित रोग
        iii.     कवक/फफूंद जनित रोग
        iv.     विषाणु(वायरस) जनित रोग
मछलियाँ भी अन्य प्राणियों के समान प्रतिकूल वातावारण में रोगग्रस्त हो जाती है। रोग फैलते ही संचित मछलियों के स्वभाव में प्रत्यक्ष अंतर आ जाता है। फिर भी साधारणतः मछलियां रोग-व्याधि से लड़ने में पूर्णत: सक्षम होती हैं।
रोग ग्रस्त मछलियों के लक्षण
(1) बीमार मछली समूह में न रहकर किनारे पर अलग-थलग दिखाई देती है, वे शिथिल हो जाती है।
(2) बेचैनी, अनियंत्रित तैरती हैं।
(3) अपने शरीर को बंधान के किनारे या पानी में गड़े बाँस के ठूँठ से बार-बार रगड़ना।
(4) पानी में बार-बार कूद कर पानी को छलकाना।
(5) मुँह खोलकर बार-बार वायु अन्दर लेने का प्रयास करना।
(6) पानी में बार-बार गोल-गोल घूमना।
(7) भोजन न करना।
(8) पानी में सीधा टंगे रहना। कभी-कभी उल्टी भी हो जाती है।
(9) मछली के शरीर का रंग फीका पड़ जाता है। चमक कम हो जाती है तथा शरीर पर श्लेष्मिक द्रव के स्त्राव से शरीर चिपचिपा चिकना हो जाता है।
(10) कभी-कभी आँख, शरीर तथा गलफड़े फूल जाते है।
(11) शरीर की त्वचा फट जाती है तथा उससे खून लगता है।
(12) गलफड़े (गिल्स) की लाली कम हो जाना, उनमें सफेद धब्बों का बनना।
(13) शरीर में परजीवी का वास हो जाता है।
उपराेक्त कारणों से मछली की बाढ़ रूक जाती है तथा कालान्तर में तालाब में मछली मरने भी लगती है।
रोग के कारण
(अ) रासायनिक परिवर्तनः- पानी की गुणवत्ता, तापमान, पी.एच. आँक्सीजन, कार्बन डाईआक्साइड आदि की असंतुलित मात्रा मछली के लिए घातक होती है।
(ब) मछली के वर्ज्य पदार्थ जल में एकत्रित होते जाते है व मछली के अंगों जैसे गलफड़े, चर्म, मुखगुव्हा के सम्पर्क में आकर उन्हें नुकसान पहुँचाते हैं।
(स) कार्बनिक खाद, उर्वरक या आहार आवद्गयकता से अधिक दिए जाने से विषैली गैसे उत्पन्न होते है जो नुकसान दायक होती है।
(द) बहुत से रोगजनक जीवाणु व विषाणु पानी में रहते है जब मछली प्रतिकूल परीस्थिति में कमजोर हो जाती है तो उस पर जीवाणु/विषाणु आक्रमण करके रोग ग्रसित कर देते हैं।
प्रमुखतः रोगों को चार भागों में बांट सकते हैं-
(1) परजीवी जनित रोग
(2) जीवाणु जनित रोग
(3) विषाणु जनित रोग
(4) कवक (फंगस) जनित रोग
परजीवी जनित रोग
आतंरिक परजीवी, मछली के आतं रिक अंगों जैसे से शरीर गुहा, रक्त नलिका, वृक्क आदि में राेग फैलाते हैं जबकि बाह्‌य परजीवी मछली के चर्म,गलफडों, पंखों आदि के रोग ग्रस्त करते हैं।
1. ट्राइकोडिनोसिस
लक्षण- यह बीमारी ट्राइकोडीना नामक प्रोटोजोआ परजीवी से होती है जो मछली के गलफड़ों व शरीर के बाह्‌य सतह पर रहता है। संक्रमित मछली में शिथिलता भार में कमी तथा मरणासन्न अवस्था आ जाती है गलफड़ों से अधिक श्लेष्म प्रभावित होने से श्वसन में कठिनाई होती है
उपचार-
निम्नर सायनों के घोल में संक्रमित मछली को 1-2 मिनिट डुबाकर रखा जाता है।
1. 1.5 प्रतिशत सामान्य नमक घोल
2. 25 पी.पी.एम. फार्मेलिन
3. 10 पी.पी.एम. काँपरसल्फेट (नीला थोथा) घोल
2. माइक्रो एवं मिक्सोस्पोरीडिएसिस-
लक्षण- माइक्रोस्पारीडिएसिस रोग अंगुलिका अवस्था में अधिक होता है ये कोशिकाओं मे तन्तुमय कृमिकोष बनाकर रहते है तथा उत्तकों को भारी क्षति पहुंचाते हैं मिक्सोस्पोरीडिएसिस रोग मछली के गलफड़ों व चर्म को संक्रमित करता है।
उपचार-
इनकी रोकथाम के लिए कोई औषधि पूर्ण लाभकारी सिद्ध नहीं हुई है. अतः रोगग्रस्त मछली को बाहर निकाल देते हैं मत्स्य बीज संचयन के पूर्व चूना,व्लीचिंग पावडर से पानी को रोगाणुमुक्त करते हैं।
3. सफेद धब्बेदार रोग
लक्षण- यह रोग इक्थियाेि थरिस प्रोटोजोन द्वारा होता है इसमें मछली की त्वचा, पंख व गलफड़ों पर छोटे सफेद धब्बे हो जाते है. ये उत्तकों में रहकर उतको काो नष्ट कर देते हैं।
उपचार-
0.1 पी.पी.एम. मेलाकाइट ग्रीन + 50 पी.पी.एम. फार्मलिन में 1.2 मिनिट तक मछली को डूबाते हैं पोखार में 15 से 25 पी.पी.एम. फार्मेलिन हर दूसरे दिन रागे समाप्त होने तक डालते हैं।
4. डेक्टाइलो गाइरोसिस व गाइरो डेक्टाइलोसिस-
लक्षण- यह कार्प एवं हिंसक मछलियों के लिए घातक हैं. डेक्टाइलोगायरस मछली के गलफड़ों कों संक्रमित करते है इससे ये बदरंग, शरीर की वृद्धि में कमी व भार में कमी जैसे लक्षण दर्शाते हैं।
गाइरोडेक्टाइलस त्वचा पर संक्रमित भाग की कोशिकाओं में घाव बना देता है जिससे शल्कों का गिरना, अधिक श्लेषक एवं त्वचा बदरंग हो सकती है।
उपचार-
1 पी.पी.एम. पोटेशियम परमेगनेट के घोल में 30 मिनिट तक रखते हैं।
1. 1:2000 का ऐसिटिक एसिड केघोल एवं 2 प्रतिद्गात नमकघोल मे बारी-बारी से 2 मिनिट के लिए डूबावें।
2. तालाब में मेलाथियाँन 0.25 पी.पी.एम. सात दिन के अंतर में तीन बार छिड़कें।
5. आरगुलौसिस
लक्षण-यह रोग आरगुलस परजीवी के कारण होता है। यह मछली की त्वचा पर गहरे घाव कर देते हैं जिससे त्वचा पर फफूंद व जीवाणु आक्रमण कर देते हैं व मछलियां मरने लगती है।
उपचार-
1. 500 पी.पी.एम.पोटेशियम परमेगनेट केघोल में 1 मिनिट के लिए डूबाए.
0.25 पी.पी.एम. मेलेथियाँरन को 1-2 सप्ताह के अंतरराल में 3 बार उपयोग करें
जीवाणु जनित रोग
6. काँलमनेरिस रोग
लक्षण- यह फ्लेक्सीबेक्टर काँलमनेरिस नामक जीवाणु के संक्रमण से होता है, पहले शरीर के बाहरी सतह पर व गलफड़ों मे घाव होने शुरू हो जाते हैं फिर जीवाणु त्वचीय उत्तक में पहुंच कर घाव कर देते है।
उपचार
1. संक्रमित भाग में पोटेशियम परमेगनेट का लेप लगाए।
2. 1-2 पी.पी.एम. काँपर सल्फेट काघोल पोखरों में डालें।
7. बेक्टीरियल हिमारैजिक सेप्टीसिमिया
लक्षण- यह मछलियों में ऐरोमोनाँस हाइड्राेफिला व स्युडोमोनास फ्लुरिसेन्स नामक जीवाणु से हाेते है इसमें शरीर पर फोड़े, तथा फैलाव आता है, शरीर पर फूले हुए घाव हो जाते है जो त्वचा व मांसपेशियो में हुए क्षय को दर्शाता है, पंखों के आधार पर घाव दिखाई देते हैं।
उपचार
1. पोखरों में 2-3 पी.पी.एम. पोटेशियम परमेगनेट का घोल डालना चाहिए।
2. टेरामाइसिन को भोजन के साथ 65-80 मि.ग्राम प्रति किलोग्राम भार से10 दिन तक लगातार दें।
8. ड्राँप्सी
लक्षण- यह उन पोखरों में होता है जहां पर्याप्त भोजन की कमी होती है. इसमें मछली का धड़ उसके सिर के अनुपात में काफी पतला हो जाता है और दुर्बल हो जाती है। मछली जब हाइड्रोफिला नामक जीवाणुं के सम्पर्क में आती है तो यह रोग होता है. प्रमुख लक्षण शल्कों का बहुत अधिक मात्रा में गिरना तथा पेट में पानी भर जाता है।
उपचार
1. मछलियों को पर्याप्त भोजन देना व पानी की गुणवत्ता बनाए रखना।
2. पोखर में 15 दिन के अंतरराल में 100 कि.ग्राम प्रति हेक्टर की दर से चूना डालें।
9. एडवर्डसिलोसिस-
लक्षण- इसे सड़कर गल जाने वाला रोग भी कहते हैं, यह एडवर्डसिला टारडा नामक जीवाणु से होता है।प्राथमिक रूप से मछली दुर्बल हो जाती है,शल्क गिरने लगते है फिर पेशियो मे गैस से फोड़े बन जाते हैं चरम अवस्था में मछली से दुर्गन्ध आने लगती है।
उपचार-
1. सर्वप्रथम पानी की गुणवत्ता की जांच कराना चाहिए।
2. 0.04 पी.पी.एम. के आयोडीन के घोल में दो घंटे के लिए मछली को रखना चाहिए।
10. वाइब्रियोसिस
लक्षण- यह रोग विब्रिया प्रजाति के जीवाणुओं से होता है, इसमें मछली को भोजन के प्रति अरूचि होने के साथ-साथ रंग काला पड़ जाता है, मछली अचानक मरने भी लगती है। यह मछली की आखों को अधिक प्रभावित करता है व सूजन के कारण आंख बाहर निकल आती है व सफेद धब्बे पड़ जाते हैं।
उपचार
आंक्सीटेट्रासाईक्लिन तथा सल्फोनामाइड को 8-12 ग्राम प्रति किलोग्राम भोजन के साथ मिलाकर देना चाहिए।
11. फिनराँट एवं टेलराँट
लक्षण- यह रोग ऐरोमोनाँस फ्लुओरेसेन्स, स्युडोमोनाँस फ्लुओरेसेन्स तथा स्युडोमोनाँस पुटीफेसीन्स नामक जीवाणु के संक्रमण से होता है, इसमें मछली के पक्ष एव पूंछ सड़कर गिरने लगती हैं। बाद में मछलियां मर जाती है।
उपचार-
1. पानी की स्वच्छता आवश्यक है।
2. एमेक्विल औषधि 10 मि.ली. प्रति सौ लीटर पानी में मिलाकर संक्रमित मछली को 24 घंटे तक घोल में रखना चाहिए।
कवक/फफूंद जनित रोग
आंद्रता के बढ़ने पर विशेषकर वर्षा ऋतु के प्रारंभ होते ही वातावरण में फफूंद के जीवाणु फैलने लगते हैं मछली के अंडे, स्पान तथा नवजात शिशु तथा घायल बड़ी मछलियां फफूंद से जल्दी संक्रमित हो ते हैं। वास्तव में फफूंद द्वितीय रोग जनक है जो अनुकूल मौसम में शरीर के घायल अंगों पर आश्रय पाकर फलते-फूलते हैं।
12.सेप्रोलिग्नीयोसिस
सेप्रोलिग्नीयोसिस पैरालिसिका नामक फफूंद से होता है जाल चलाने तथा परिवहन के दौरान मत्स्य बीज के घायल हो जाने से फफूंद घायल शरीर पर चिपक कर फैलने लगता है तथा त्वचा पर सफेद जालीदार सतह बनाता है। यह सबसे घातक रोग है।
लक्षण-
1. जबड़े फूल जाते हैं अंधापन आने लगता है।
2. पैक्टोरलफिन एवं काँडलफिन के जोड़ पर खून जमा हो जाता है।
3. रोगग्रस्त भाग पर रूई के समान गुच्छे उभर आते है।
4. मछली कमजोर तथा सुस्त हो जाती है।
उपचार-
3 प्रतिशत नमक का घोल या 1:1000 भाग पोटाश के घोल या 1:2000 कैल्शियम सल्फेट के घोल में ५ मिनट तक डुबोने तथा इस रोग के समाप्त होने तक दोहराने से लाभ होता है।
13. ब्रेकियोमाइसिस-
इसका आक्रमण गलफड़ो पर होता है, जिससे गलफड़े रंगहीन हो जाते हैं जो कुछ समय उपरांत सड़-गल कर गिर जाते हैं।
उपचार-
1. 250 पी.पी.एम. का फार्मिलिन घोल बनाकर मछली को स्नान दें।
2. 3 प्रतिशत सामान्य नमक के घोल मछली को विशेषकर गलफड़ों को धोना चाहिए।
3. जल का 1-2 पी.पी.एम. काँपर सल्फेट (नीला थोथा) से उपचार करना चाहिए।
4. पोखर में 15-25 पी.पी.एम. की दर से फार्मिलिन डालें।
विषाणु(वायरस) जनित रोग

14.एपीजुएटिक अलसरेटिव सिण्ड्रोम (ई.यू.एस.)
गत 22 वर्षो से यह रागे महामारी के रूपमें भारत में फैल रहा है। सर्वप्रथम यह रागे 1983 से त्रिपुरा राज्य में प्रविष्ट हुआ तथा वहां से सम्पूर्ण भारत वर्ष में फैल गया। वर्षा काल के बाद ठीक ऋतु के प्रारंभ में सर्वप्रथम तल में रहने वाली सँवल, मांगूर ,सिंधी बाँम, सिंधाड़, कटरंग तथा स्थानीय छोटी छिलके वाली मछलियां इस राेग से प्रभावित होती हैं। कुछ ही समय में पालने वाली कार्प मछलियां जैसे- कतला, रोहू तथा मिरगल मछलियां भी इस रोग की चपेट में आ जाती हैं। इस महामारी के प्रारंभ में मछली की त्वचा पर जगह जगह खून के धब्बे उभरते हैं जो बाद मे चोट के गहरे घावों में तबदील हो जाते है तथा उनसे खून निकलने लगता है। चरम अवस्था में हरे लाल धब्बे बढ़ते हुए पूरे शरीर पर यहां वहां कर गहरे अलसर में परिणीत हो जाता है। विशेष रूप से सिर तथा पूंछ के पास वाले भाग पर। पंख तथा पूंछ गल जाती है तथा अततः शीघ्र व्यापक पैमाने पर मछलियां मर कर किनारे दिखाई देने लगती है।
कारण-
यह रोग पोखर ,जलाशय तथा नदी में रहने वाली मछलियों में फैल सकता है, परन्तु इस रोग का प्रकापे खेती की जमीन के समीपवर्ती तालाबों ज्यादा देखा गया है, जहां वर्षा के पानीमें खाद,कीटनाशक इत्यादि घुलकर तालाब में प्रवेश करते है। साधरणतः कीटनाद्गाक के प्रभाव से मछली की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। पानी में प्रदूषण अधिक होने पर अमोनिया का प्रभाव बढ़ जाता है तथा पानीमें आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। यह परिस्थिति इस रोग के बैक्टिरिया के लिए अनुकूल होती है, जिससे ये तेजी से बढ़ते है तथा प्रारंभ में त्वचा पर धब्बें के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं जो कालांतर में गहरे अलसर का रूप धारण कर लेते हैं।
इस रागे के फैलने में अनेक कारक अपना यागे दान देते है, जिसमें वायरस,बैक्टिरिया तथा फँगस (फफूंद) प्रमुख है।
बचाव के उपाय-
1. पूर्व में रोगग्रस्त प्रजनकों जो बाद में भले ही स्वस्थ्य हो जाते हैं ऐसे प्रजनकों से मत्स्य बीज उत्पादित नहीं करना चाहिए।
2. तालाब के किनारे यदि कृषि भूमि है तो तालाब के चारों ओर बाँध बना देना चाहिये, ताकि कृषि भूमि का जल सीधे तालाब में प्रवेश न करें ।
3. वर्षा के बाद जल का पी.एच. देखकर या कम से कम 200 किलो चूने का उपयोग करना चाहिए।
4. शीत ऋतु के प्रारभिक काल में आँक्सीजन कम होने पर पम्प, ब्लोवर से पानीमें आँक्सीजन को प्रवाहित करना चाहिए।
प्रति एकड़ 5 किलो मोटे दाने वाला नमक डालने से कतला व अन्य मछलियों को वर्षा पश्चात्‌ मछली में अन्य होने वाले रोग से सुरक्षा की जा सकती है।
उपचार-
1. अधिक रोगग्रस्त मछली को तालाब से अलग कर देना चाहिए तथा तालाब में कली का चूना (क्विक लाइम) जो कि ठोस टुकड़ों में हो 600 किलो प्रति हेक्टेयर/मीटर की दर से जल में तीन सप्ताहिक किश्तो में डालने से तीन सप्ताह में नियंत्रित हो जाती है।
2. चूने के उपयोग के साथ-साथ व्लीचिंग पाउडर 1 पी.पी.एम. अर्थात्‌ 10 किलो प्रति हेक्टर/मीटर की दर से तालाब में डाला जाना कारगर सिद्ध होता है। कम मात्रा में या छोटे पोखर में मछली ग्रसित होता पोटेशियम परमेगनेट 0.5 से 2.0 पी.पी.एम. केघोल में 2 मिनट तक स्नान लगातार 3-4 दिन तक कराने से लाभ होता है।
3. सिफेक्स- केन्द्रीय स्वच्छ जल संवर्धन संस्थान (सीफा) भुवनेश्वर के वैज्ञानिकों ने अल्सरेटिव सिन्ड्रोम के उन्मूलन हेतु दवा बनाई है जो एक्वावेट लेबारेटरीज राँची द्वारा बेची जाती है। प्रति हेक्टर/ मीटर १ लीटर की दर से पानी का उपचार आवश्यकतानुसार किया जा सकता है। प्रति लीटर इसका मूल्य रू. 950/- के लगभग है।
पी. पी. एम. की गणना कैसे करेंगे
पी. पी. एम. अर्थात्‌ पार्टस पर मिलियन अर्थात्‌ भाग प्रति दस लाख
1 पी. पी. एम. अर्थात्‌ एक घनफुट पानी में 0.283 ग्राम दवाई
कुल मात्रा ग्राम में = जलक्षेत्र की लम्बाई (मीटर में) X जलक्षेत्र की चौड़ाई (मीटर में) X
जलक्षेत्र की गहराई (मीटर में) X डोज पी. पी. एम
नोटः- एक हेक्टेयर मीटर जलक्षेत्र अर्थात्‌ एक मीटर गहरे एक हेक्टेयर जलक्षेत्र में 1 पी. पी एम. हेतु 10 किलो ग्राम दवा लगेगी।
या
1 पी.पी. एम. अर्थात्‌ एक लीटर पानीमें 0.0001 ग्राम दवाई
या
1 पी.पी. एम. अर्थात्‌ एक गैलन पानी में 0.0083 ग्राम दवाई

स्त्रोत: मध्यप्रदेश शासन, मछुआ कल्याण एव मत्स्य विकास।


मछली पालन में रोजगार की संभावनाएं

दोस्तों हम इस पोस्ट में मछली पालन में रोजगार कि संभावनाएं पर चर्चा करने जा रहे हैं आपसे अनुरोध है कि इसे अधिक से अधिक शेयर करेंl साथ मछली पालन से सम्बधित जानकारी लेने के लिए आप हमारे ब्लॉग पर जा सकते हैं l
हमारा ब्लॉग का पता है :- http://kvsbihar.blogspot.in/
मछली पालन में रोजगार की संभावनाएं
  1. मछली पालन एक उद्योग
  2. सुलभ,सस्ता और अधिक आय देने वाला
  3. स्वरोजगार उपलब्ध कराने की महत्वपूर्ण योजना
  4. संगठित तरीके से व्यवसाय की शुरुआत
  5. अनुकूल प्राकृतिक स्थिति
  6. पूरे समाज की बेहतरी
  7. लाभार्जन करने वाले सहायक उद्योग
  8. सह-आय के अन्य स्रोत
          i.     मत्स्य पालन सह-धान उत्पादन
         ii.     मछली पालन सह-बत्तख पालन
        iii.     मछली सह-मुर्गी पालन
        iv.     मछली पालन सह-झींगा पालन
         v.     मछली सह-सुअर पालन
        vi.     मछली पालन सह-सिंघाड़ा उत्पादन
        vii.     विदेशी मुद्रा अर्जन का साधन
          मत्स्य पालन हेतु शासन की विभिन्न योजनाएं
          मत्स्य उद्योग के सामाजिक व आर्थिक प्रभाव
मछली पालन एक उद्योग
भारतीय अर्थव्यवस्था में मछली पालन एक महत्वपूर्ण व्यवसाय है जिसमें रोजगार की अपार संभावनाएं हैं। ग्रामीण विकास एवं अर्थव्यवस्था में मछली पालन की महत्वपूर्ण भूमिका है। मछली पालन के द्वारा रोजगार सृजन तथा आय में वृद्धि की अपार संभावनाएं हैं, ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़े हुए लोगों में आमतौर पर आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य कमजोर तबके के हैं जिनका जीवन-स्तर इस व्यवसाय को बढ़ावा देने से उठ सकता है। मत्स्योद्योग एक महत्वपूर्ण उद्योग के अंतर्गत आता है तथा इस उद्योग को शुरू करने के लिए कम पूंजी की आवश्यकता होती है। इस कारण इस उद्योग को आसानी से शुरू किया जा सकता है। मत्स्योद्योग के विकास से जहां एक ओर खाद्य समस्या सुधरेगी वहीं दूसरी ओर विदेशी मुद्रा अर्जित होगी जिससे अर्थव्यवस्था में भी सुधार होगा। स्वतंत्रता के पश्चात् देश में मछली पालन में भारी वृद्धि हुई है। वर्ष 1950-51 में देश में मछली का कुल उत्पादन 7.5 लाख टन था, जबकि 2004-05 में यह उत्पादन 63.04 लाख टन हो गया। भारत विश्व में मछली का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक और अंतर्देशीय मत्स्य पालन का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। मत्स्य क्षेत्र देश में 11 लाख से अधिक लोगों को रोजगार प्रदान करता है।
सुलभ,सस्ता और अधिक आय देने वाला

चूंकि कृषि भूमि में कोई वृद्धि नहीं हो रही है तथा ज्यादातर कृषि कार्य मशीनरी से होने लगे हैं, इसलिए राज्य की निर्धनता की स्थिति और भी भयावह होती जा रही है, इस कारण ग्रामीण क्षेत्रों में मत्स्य पालन जैसे लघु उद्योगों को प्रोत्साहन देना होगा तभी ग्रामीण क्षेत्र के निर्धनों का आर्थिक एवं सामाजिक स्तर सुधारा जा सकेगा। सामाजिक विकास के लिए निर्धन, बेरोजगार, अशिक्षित लोगों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने पर विशेष ध्यान देना होगा। इसके लिए एक सुलभ, सस्ते एवं कम समय में अधिक आय देने वाले मत्स्य पालन उद्योग व्यवसाय को अपनाने हेतु प्रेरित करने की आवश्यकता होगी।
स्वरोजगार उपलब्ध कराने की महत्वपूर्ण योजना

भारत वर्ष का अधिकांश जन समुदाय ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करता है, समाज की उपेक्षा और व्यवस्था के अमानवीय व्यवहार के कारण खासतौर पर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं निर्धन समुदाय के लोग संकट के दौर से गुजरते रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले संपन्न समाज के व्यक्ति अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों को समाज से ऊपर नहीं उठने देते थे और उनका बंधुआ मजदूर के रूप में पूर्ण शोषण करते रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्र में इस वर्ग के लोगों में काफी सामाजिक कुरीतियां हैं, जिसका प्रमुख कारण इनका अशिक्षित होना और इनमें अंधविश्वास होना है। भारत सरकार ने इनके सामाजिक उत्थान के लिए तथा इनकी आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए इन्हें स्वस्थ रखने तथा स्वरोजगार उपलब्ध कराने के लिए विभिन्न योजनाएं संचालित की जिसमें से मछली पालन को महत्वपूर्ण व्यवसाय के रूप में अपनाने हेतु प्रेरित किया। ग्रामीण क्षेत्र में मत्स्यपालकों को मत्स्य पालन उद्योग में लगाने के लिए उन्हें तालाब पट्टे पर दिलाना, उन्नत किस्म का मत्स्य बीज प्रदान करवाना, उन्हें मत्स्य पालन संबंधी तकनीकी प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया।
संगठित तरीके से व्यवसाय की शुरुआत

मत्स्य उद्योग एक ऐसा व्यवसाय है जिसे निर्धन से निर्धन व्यक्ति अपना सकता है एवं अच्छी आय प्राप्त कर सकता है तथा समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाया जा सकता है। विभिन्न माध्यमों से मत्स्य पालन व्यवसाय में लगकर अपना आर्थिक स्तर सुधारा है तथा सामाजिक स्तर में भी काफी सुधार हुआ है। आज मत्स्य व्यापार में लगी महिलाएं पुरुषों के साथ बराबर का साथ देकर स्वयं मछली बेचने बाजार जाती हैं जिससे उनकी इस व्यवसाय से संलग्न रहने की स्पष्ट रूचि झलकती दिखाई देती है।
महिलाएं स्वयंसहायता समूहों का गठन कर मिलकर आर्थिक स्तर सुधारने का कार्य कर रही हैं वहीं दूसरी ओर समाज को एकसूत्र में बांधकर आगे बढ़ाने का सराहनीय कार्य कर रही हैं। आज के परिवेश में समाज में उत्कृष्ट स्थान बनाने के लिए बच्चों की शिक्षा पर उचित ध्यान देकर उनके भविष्य को संवारने एवं समाज में उचित स्थान दिलाने के लिए यह एक सराहनीय कदम है। शिक्षा को समाज का मुख्य अंग माना गया है क्योंकि शिक्षित समाज ही एक उन्नत समाज की रचना कर सकता है तथा समाज के साथ-साथ अपने घर, ग्राम, देश के विकास में अपना पूर्ण योगदान दे सकता है।
अनुकूल प्राकृतिक स्थिति

हमारे देश में भू-क्षेत्रफल का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो नदियों, समुद्र व अन्य जल स्रोतों से ढका हुआ है और फसलोत्पादन के लिए उपलब्ध नहीं है, वहां मत्स्य पालन को बढ़ावा देकर अच्छी आय प्राप्त की जा सकती है। इस उद्योग के माध्यम से अन्य सहायक उद्योग को विकसित करके लाभ प्राप्त किया जा सकता है। यह उद्योग विदेशी मुद्रा अर्जित करने का प्रमुख साधन है। आज आवश्यकता इस बात की है कि इन्हें मत्स्य पालन से प्राप्त होने वाली आर्थिकी से अवगत कराया जाएं, इनकी मानसिकता में बदलाव लाने, इनमें विश्वास जगाने, घर एवं समाज के बंधनों से बाहर निकल कर व्यवसाय में लगाने हेतु उन्हें पूर्ण सहयोग देने की जरूरत है। तभी ये बाहरी परिवेश में आकर अपना आर्थिक स्तर सुधार सकेंगे तथा एक अच्छे समाज का निर्माण कर क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन लाने में सक्षम हो सकेंगे एवं निर्भीक बन सकेंगे।
पूरे समाज की बेहतरी

जिस समाज का आर्थिक स्तर बहुत अच्छा होगा, निश्चित ही उस समाज का सामाजिक स्तर उच्च रहेगा। उनका रहन-सहन, खानपान, वातावरण अच्छा होगा, उनका आचरण शीलवान होगा। अतः ग्रामीण क्षेत्र में निर्धन वर्ग के लोगों को खासतौर पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वर्ग के लोगों को मत्स्य पालन व्यवसाय में लगाकर उनका आर्थिक स्तर सुधारना होगा, तभी उनका सामाजिक स्तर सुधरेगा। इस प्रकार मछली पालन देश की अर्थव्यस्था में बहुत महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है।
लाभार्जन करने वाले सहायक उद्योग

इस उद्योग पर आधारित अन्य सहायक उद्योग भी हैं जैसे जाल निर्माण उद्योग, नाव निर्माण उद्योग, नायलोन निर्माण, तार का रस्सा उद्योग, बर्फ के कारखाने आदि उद्योग भी मत्स्य उद्योग से लाभान्वित हो रहे हैं। यह उद्योग बेरोजगारी दूर करने में सहायक है। रोजगारमूलक होने के कारण इस उद्योग के माध्यम से देश की पिछड़ी अवस्था में सुधार किया जा सकता है। चूंकि कृषि भूमि में कोई वृद्धि नहीं हो रही है तथा ज्यादातर कृषि कार्य मशीनरी से होने लगे हैं इसलिये देश की निर्धनता की स्थिति और भी भयावह होती जा रही है। ग्रामीण क्षेत्र में मत्स्य पालन जैसे महत्वपूर्ण उद्योगों को प्रोत्साहन देना होगा तभी ग्रामीण सामाजिक स्तर सुधारा जा सकेगा। सामाजिक विकास के लिए निर्धन, बेरोजगार अशिक्षित लोगों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने पर विशेष ध्यान देना होगा। इसके लिए मत्स्य पालन उद्योग जोकि एक सुलभ, सस्ता एवं कम समय में अधिक आय देने वाला है, व्यवसाय को अपनाने हेतु प्रेरित करने की आवश्यकता होगी। मत्स्य पालन व्यवस्था शुरू करने के पहले मत्स्यपालकों को उन्नत तकनीकी की जानकारी देनी तथा प्रशिक्षण देना होगा। अगर मत्स्य पालन उन्नत तकनीकी से किया जाएगा तो निश्चित रूप से मत्स्य उत्पादकता बढ़ेगी और जब मत्स्य उत्पादकता बढ़ेगी तो आय में वृद्धि होगी और आय में वृद्धि होगी तो निश्चित रूप से सामाजिक स्तर सुधरेगा क्योंकि आर्थिक अभाव में जहां निर्धन व्यक्तियों का जीवन-स्तर गिरा हुआ था उसमें सुधार होगा परिवार के बच्चों को; शिक्षित कर सकेंगे और जब बच्चे शिक्षित हो जाएंगे तो समाज मे उनका स्तर ऊंचा होगा तथा हीन भावना की कुंठा से मुक्ति मिलेगी और यही शिक्षित बच्चे समाज के अन्य सदस्यों को अपना सामाजिक स्तर सुधारने में विशेष योगदान दे सकेंगे। अतः इनको स्वरोजगार में लगाना आवश्यक है।
सह-आय के अन्य स्रोत

मछली पालन सह आय के अन्य स्रोत- इस उद्योग के साथ-साथ अन्य सहायक उद्योग भी कर सकते हैं जिनमें लागत दर कम आती है तथा लाभ अधिक प्राप्त होता है। मछली पालन के साथ-साथ अन्य उत्पादक जीवों का पालन किया जा सकता है जिससे मत्स्य उत्पादन में होने वाले व्यय की पूर्ति की जा सके तथा अन्य जीवों से उत्सर्जित व्यर्थ पदार्थों का उपयोग मत्स्य पालन के लिए हो सके तथा अन्य जीवों के उत्पादन से अतिरिक्त आय प्राप्त हो सके। वर्तमान में मत्स्य पालन के साथ सुअर, बत्तख एवं मुर्गीपालन करना काफी लाभप्रद साबित हुआ है। इन प्रयोगों से प्राप्त परिणाम आशाजनक तथा उत्साहपूर्वक हैं।
मत्स्य पालन सह-धान उत्पादन
इस खेती में धान की दो फसल (लम्बी पौधों की फसल खरीफ में एवं अधिक अन्न देने वाली धान की फसल रबी में) एवं साल में मछली की एक फसल धान की दोनों फसल के साथ ली जा सकती हैं। धान सह मछली पालन का चुनाव करते समय इसका ध्यान रखना चाहिए कि भूमि में अधिक से अधिक पानी रोकने की क्षमता होनी चाहिए जो इस क्षेत्र में कन्हार मढ़ासी एवं डोरसा मिट्टी में पाई जाती है। खेत में पानी के आवागमन की उचित व्यवस्था मछली पालन हेतु अति आवश्यक है। सिंचाई के साधन मौजूद होने चाहिए व औसत वर्षा 800 किलोमीटर से अधिक होनी चाहिए।
मछली पालन सह-बत्तख पालन
मत्स्य सह-बत्तख पालन के लिए एक अच्छे तालाब का चुनाव और अनचाही मछलियों और वनस्पति का उन्मूलन मत्स्य पालन के पूर्व करना अनिवार्य है। जैसा पूर्व में बताया गया है मत्स्य बीच संचय की दर से इसमें कम रहती है। 6000 मत्स्य अंगुलिकाएं/हेक्टेयर की दर से कम से कम 100 किलोमीटर आकार की संचय करना अनिवार्य है क्योंकि बत्तखें छोटी मछलियों को अपना भोजन बना लेती हैं। बत्तखों को पालने के लिए बत्तखों के प्रकार पर ध्यान देना अति आवश्यक है। भारतीय सुधरी हुई नस्ल की बत्तखें उपयुक्त पाई गई हैं। खाकी केम्पवेल की बत्तखें भी अब पाली जाने लगी हैं। एक हेक्टेयर जल क्षेत्र में मत्स्य पालन हेतु जो खाद की आवश्यकता पड़ती है उनकी पूर्ति 200-300 बत्तखें/हेक्टेयर मिलकर पूरी की जा सकती है।
मछली सह-मुर्गी पालन
मछली सह-मुर्गी पालन के अंतर्गत मुर्गी कीलिटर का उपयोग सीधे तालाब में किया जाता है, जो मछलियों द्वारा आहार के रूप में उपयोग किया जाता है एवं शेष बचा हुआ कीलिटर तालाब में खाद के काम आ जाता है। मुर्गी के घर को आरामदायक तथा गर्मियों में ठंडा और सर्दियों में गरम रखने की व्यवस्था होना अनिवार्य है। साथ ही उसमें प्रत्येक पक्षी के लिए पर्याप्त जगह, हवा, रोशनी एवं धूप आनी चाहिए तथा उसे सूखा रखना चाहिए। मुर्गियों के अण्डे, मुर्गियों की प्रजाति एवं नस्ल तथा उनके रहने की उचित व्यवस्था सन्तुलित आहार और उनकी स्वास्थ्य रक्षा संबंधी व्यवस्था आदि पर निर्भर करती है।
मछली पालन सह-झींगा पालन
मछली सह झींगा पालन में हमें तालाब की तैयारी एवं प्रबंधन पूर्व की भांति ही करना है। तालाब की पूर्ण तैयारी हो जाने के बाद मीठे पानी में झींगा संचय करते हैं। पालने वाली प्रजाति जिसे हम ‘‘महा झींगा’’ भी कहते हैं, एवं जो सबसे तेज बढ़ने वाला होता है ‘‘मेक्रोबेकियम रोजनवर्गीय’’ है। इसका पालन मछली के साथ एवं केवल झींगा पालन दोनों पद्धति से कर सकते हैं। यह तालाब के तल में रहता है एवं मछलियों द्वारा न खाए गए भोजन, जलीय कीड़े एवं कीट-पतंगों के लार्वा आदि को खाता है। जब इसका मछली के साथ पालन करते हैं तो तालाब की संचय की जा रही मिग्रल मत्स्य बीज की संख्या कम कर दी जाती है। मछली सह-झींगा पालन में लगभग 15,000 झींगे के बीज प्रति हेक्टेयर की दर से संचय किये जाते हैं। इसके लिए किसी अतिरिक्त खाद या भोजन आदि तालाब में डालने की आवश्यकता नहीं रहती है। सामान्यतः झींगे के बीज छः माह में 70-80 ग्राम के एवं आकार में 120-130 सेंटीमीटर के हो जाते हैं। इन्हें बाजार में बेचने पर अच्छी कीमत प्राप्त की जा सकती है।
मछली सह-सुअर पालन
प्रक्षेत्र के अनुपयोगी पदार्थ का उपयोग कृषि एवं मवेशियों के पालन में किया जाता है। इसी के तारतम्य में मत्स्य एवं सुअर पालन साथ करने की विधि विकसित की गई है। सुअर पालन तालाब के किनारे या उसके बंड पर छोटा घर बनाकर किया जाता है जिससे सुअर पालन में परित्याग अनुपयोगी पदार्थ मलमूत्र सीधे जलाशय में बहाकर डाले जाते हैं जोकि मत्स्य का आहार बन जाता है। साथ ही जलाशय में खाद का काम भी करता है और तालाब की उत्पादकता को बढ़ाता है, जिससे मत्स्य उत्पादन बढ़ता है। इस प्रकार मत्स्य पालन से हमें मछलियों को अतिरिक्त आहार नहीं देना होता। साथ ही खाद का व्यय भी बच जाता है। सुअर पालन में जो व्यय आता है उसकी पूर्ति सुअर के मांस के बेचने से हो जाती है। मछली सह-सुअर पालन पद्धति बहुत सरल है और कृषक इसे सरलता से कर सकते हैं।
मछली पालन सह-सिंघाड़ा उत्पादन
छोटे तालाब जिनकी गहराई 1-2 मीटर रहती है, जिनमें मत्स्य पालन किया जाता है, उनमें सिंघाड़ा की उपज भी ली जा सकती है। सिंघाड़ा एक उत्तम खाद्य पदार्थ है। तालाब में सिंघाड़ा बरसात में लगाया जाता है एवं उपज अक्टूबर माह से जनवरी तक ली जा सकती है। सिंघाड़ा और मछली पालन से जहां मछलियों को भोजन प्राप्त होता है वही खाद्य का उपयोग सिंघाड़ा की वृद्धि में सहायक होता है। सिंघाड़ा की पत्तियां एवं शाखाएं जो समय-समय पर टूटती हैं, मछलियों के भोजन का काम करती हैं। ऐसे तालाबों में कालबसू और मिग्रल की बाढ़ अच्छी रहती है। पौधों के वह भाग जिन्हें मछलियां नहीं खाती हैं, तालाब में खाद का काम करते हैं जिससे तालाब में प्लवक की बाढ़ अधिक होती है जो मछलियों का भोजन है।
विदेशी मुद्रा अर्जन का साधन
मत्स्य निर्यात आज कई देशों में विदेशी मुद्रा अर्जन करने का एक मुख्य साधन बन गया है। भारत जैसे अन्य कई देश जहां मत्स्य की खपत कम है परन्तु उत्पादन अधिक है, वहां मत्स्य का निर्यात करके भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा इससे प्राप्त की जाती है। आज जापान में विश्व का सर्वाधिक मत्स्य उत्पादन होता है जबकि अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा आदि देशों में वहां की खपत के अनुरूप उत्पादन नहीं है। जिन देशों में मत्स्य खपत से अधिक उत्पादन होता है, वे देश ऐसे देशों को जहां खपत से कम उत्पादन हो, को भारी मात्रा में मत्स्य का निर्यात करते हैं। कई देशों में अंतर्राष्ट्रीय बाजार से धन प्राप्त करने का एकमात्र जरिया मत्स्य उत्पादन और मत्स्य निर्यात पर टिका है। मत्स्य पालन व्यवसाय का महत्व मत्स्य अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उपयोगिता, आवश्यकता और कम उत्पादन तथा पूर्ति की वजह से अधिक से अधिक होता जा रहा है। मत्स्किीय क्षेत्र निर्यात के जरिए विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाला एक प्रमुख स्रोत है।
मत्स्य पालन हेतु शासन की विभिन्न योजनाएं

मछुआ प्रशिक्षण- मस्त्य कृषकों को राज्य शासन की नीति द्वारा 30 दिवसीय मत्स्य पालन का प्रशिक्षण दिया जाता है। प्रशिक्षण के दौरान प्रत्येक प्रशिक्षणार्थियों को रु. 750/- प्रशिक्षण भत्ता, 2 कि. नायलोन धागा मुफ्त दिया जाता है तथा प्रशिक्षण स्थल पर आने-जाने का वास्तविक किराया भी दिया जाता है। प्रशिक्षणार्थियों को ठहरने की व्यवस्था भी शासन द्वारा की जाती है।
लघु प्रशिक्षण- मत्स्य कृषक विकास अभिकरण योजना अंतर्गत तालाबधारी मत्स्य कृषकों को 10 दिवसीय लघु प्रशिक्षण भी दिया जाता है। प्रशिक्षण के दौरान प्रत्येक प्रशिक्षणार्थियों को रु. 500 प्रशिक्षण भत्ता देय है, जिसे अब वर्ष 2004-05 से रु. 1000 कर दिया गया है।
मछुआ दुर्घटना बीमा- केन्द्र प्रवर्तित योजना अंतर्गत मछुओं का दुर्घटना बीमा कराया जाता है जिसकी प्रीमियम राशि शासन द्वारा जमा की जाती है। इस योजना के तहत मत्स्य कृषक की मृत्यु होने पर उसके उत्तराधिकारी को रु. 50,000 की राशि प्रदान की जाती है तथा स्थाई विकलांगता होने पर रु. 25,000 की राशि दी जाती है।
सहकारी समितियों को ऋण/अनुदान- सहकारी समितियों को मत्स्य बीज, क्रय, पट्टाराशि नाव जाल क्रय एवं अन्य सामग्री क्रय करने हेतु राज्य शासन द्वारा ऋण तथा अनुदान दिया जाता है। सामान्य वर्ग की समितियों को 20 प्रतिशत तथा अनु. जाति की समितियों को 25 प्रतिशत अनुदान दिया जाता है।
निजी मत्स्य पालकों को अनुदान- अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के ऐसे मत्स्य कृषकों को जिन्होंने मत्स्य पालन करने हेतु तालाब पट्टे पर लिए हैं, उन्हें रु. 5,000 तक की सहायता अनुदान शासन की ओर से देय है, जो तालाब सुधार पर, तालाब की पट्टा राशि पर, मत्स्य बीज क्रय पर, नाव जाल क्रय पर तथा अन्य इनपुट्स पर दिया जाता है।

वित्तीय सहायता- ग्रामीण क्षेत्र के गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों को स्वरोजगार योजना हेतु प्रशिक्षण, आर्थिक सहायता एवं मत्स्य पालन हेतु 10 वर्षीय पट्टे पर तालाब उपलब्ध कराया जाता है एवं इनके लिए ऋण एवं अनुदान दिलाया जाता है जोकि तालिका में दर्शाया गया है।
नोट - वित्तीय राशि या सरकार द्वारा पर दी जाने वाली सहायता संबंधी जानकारी प्राप्त सूचना के आधार पर है। हो सकता है इस राशियों में परिवर्तन हो गया होगा। इसकी नवीनतम जानकारी के लिए कृपया नजदीक मत्स्य विभाग में जाएँ
मत्स्य कृषक विकास अभिकरण योजनांतर्गत आर्थिक सहायता
क्र.
योजना/कार्यक्रम विवरण
ऋण लागत मूल्य (अधिकतम) प्रति हेक्टेयर
वर्गवार अनुदान पात्रता
सभी वर्ग के कृषकों के लिए अनुदान
अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के कृषकों के लिए अनुदान
1
2
3
4
5
1.
तालाब मरम्मत एवं सुधार पानी के आगम/निर्गम द्वारा जाली लगाने हेतु अनुदान केवल एक बार
रु. 60000
लागत मूल्य का 20 प्रतिशत अधिकतम रु. 12000
लागत मूल्य का 20 प्रतिशत अधिकतम रु. 12000
2.
प्रथम वर्ग इनपुट्स लागत (मत्स्य बीज, मत्स्य आहार, उर्वरक, खाद व मत्स्य बीमारी के लिए औषधियां) हेतु
रु. 30000
लागत मूल्य का 20 प्रतिशत अधिकतम रु. 6000
लागत मूल्य का 20 प्रतिशत अधिकतम रु. 7500
3.
मछली पालन हेतु स्वयं की भूमि पर नवीन तालाब निर्माण (तालाब निर्माण, जल आगम/निर्गम द्वारा निर्माण, उथला ट्यूबवेल खनन हेतु)
रु. 20000
लागत मूल्य का 20 प्रतिशत अधिकतम रु. 40000
लागत मूल्य का 20 प्रतिशत अधिकतम रु. 50000
4.
समन्वित मछली पालन सह मुर्गी बत्तख/सूअर पालन
रु. 80000
लागत मूल्य का 20 प्रतिशत अधिकतम रु. 16000
लागत मूल्य का 20 प्रतिशत अधिकतम रु. 120000
5.
ऐरियेटर की स्थापना - मत्स्य उत्पादन वृद्धि हेतु 3000 किलो प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष मत्स्य उत्पादन तालाब पर
रु. 50000 1. हा.पा. ऐरियेटर/5 हा.पा. डीजल पम्प
रु. 12500 प्रति इकाई प्रति हेक्टेयर
रु. 12500 प्रति इकाई प्रति हेक्टेयर
6.
मत्स्य बीज उत्पादन हेतु मीठा फल हेचरी स्थापना (10 मिलियन फ्राय उत्पादन क्षमता की हेचरी हेतु)
रु. 800000
लागत मूल्य का 10 प्रतिशत अधिकतम रु. 80000
लागत मूल्य का 10 प्रतिशत अधिकतम रु. 80000
7.
मत्स्य आहार उत्पादन इकाई (भवन निर्माण व मशीनरी सहित इकाई निर्माण हेतु)
रु. 2500000
लागत मूल्य का 20 प्रतिशत अधिकतम रु. 5 लाख
लागत मूल्य का 20 प्रतिशत अधिकतम रु. 5 लाख

मत्स्य उद्योग के सामाजिक व आर्थिक प्रभाव

1. मत्स्य आर्थिकी से मत्स्य उद्योग समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन की असीम संभावनाएं हैं।
2. मत्स्य आर्थिकी से जहां मत्स्य व्यापार में लगे लोगों का आर्थिक स्तर सुधरा है वहीं इस वर्ग के लोगों को समाज में प्रतिष्ठित स्थान बनाने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ है।
3. ग्रामीण क्षेत्र के मत्स्य कृषकों ने विभिन्न माध्यमों से मत्स्य उद्योग में संलग्न होकर जहां अपना आर्थिक स्तर सुधारा है वहीं दूसरी ओर बाहरी परिवेश में रहकर समाज में फैली कुरीतियों को नष्ट कर अपने सामाजिक स्तर में काफी सुधार किया है।
4. वर्तमान परिवेश में महिलाओं की भागीदारी ने समाज में कुंठित जीवन जीने से बाहर निकलकर उच्च सामाजिक जीवन जीने में काफी सराहनीय प्रगति की है। 
5. महिलाओं द्वारा स्वसहायता समूहों का गठन कर विभिन्न रोजगार अपनाकर एक-दूसरे के सहयोग से कार्य कर अपना आर्थिक स्तर तो सुधारा ही है तथा समाज को एक सूत्र में बांधने में काफी सफलता हासिल की है।
6. पूर्व के दशकों में इन परिवारों की आर्थिक दशा अच्छी नहीं थी तथा समाज के बंधनों के कारण घर की चारदीवारी से निकलना नामुमकिन था। परन्तु वर्तमान परिवेश में सामाजिक बंधनों को अनदेखा करते हुए अपने आर्थिक एवं सामाजिक स्तर को सुधारने के लिए सराहनीय कदम उठाए हैं।
7.आज उद्यमी पुरुष/महिलाओं का समाज में उत्कृष्ट स्थान है। इनके द्वारा अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में लाकर उनके भविष्य को संवारने एवं उच्च स्थान दिलाने के लिए एक सराहनीय कदम है। शिक्षा को समाज का एक मुख्य अंग बनाया गया है क्योंकि शिक्षित समाज ही एक उन्नत समाज बना सकता है तथा शिक्षित व्यक्ति ही अपने घर तथा समाज के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। 
यह उद्योग रोजगार तथा खाद्य समस्या के समाधान में सहायक है। श्रम प्रधान उद्योग होने के कारण बड़ी संख्या में समाज के गरीब वर्गों को लाभदायक रोजगार प्रदान होता है जिससे इनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है। मत्स्य उद्योग के साथ-साथ कृषि व्यवसाय एवं अन्य व्यवसाय में जुड़े होने के कारण मछुआरों की प्रति व्यक्ति आय एवं कुल आय में भी वृद्धि होती है। मत्स्य उद्योग का सबसे बड़ा लाभ औषधियों के महत्व के रूप में है। इसका उपयोग अनेक दवाईयों के बनाने में किया जाता है। साथ ही मत्स्य में निहित प्रोटीन स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभदायक होता है। मत्स्य जल शुद्धिकरण जल आपूर्ति में वृद्धि के लिए सहायक है। हमारे देश में भू-क्षेत्रफल का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो नदियों, समुद्र व अन्य जल स्रोतों से ढका हुआ है और फसलोत्पादन के लिए उपलब्ध नहीं है, वहां मत्स्य पालन को बढ़ावा देकर अच्छी आय प्राप्त की जा सकती है। इस उद्योग के माध्यम से अन्य सहायक उद्योग को विकसित करके लाभ प्राप्त किया जा सकता है। यह उद्योग विदेशी मुद्रा अर्जित करने का प्रमुख साधन है।

स्त्रोत - डॉ. नीरज कुमार गौतम, कुरुक्षेत्र और इंडिया वॉटर से लिया गया (लेखक शासकीय महाविद्यालय ढाना, जिला सागर, म.प्र., के अर्थशास्त्र विभाग में अतिथि विद्वान हैं).